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सावन ऋतु आती तो दिल मचल मचल जाते। चेहरों पर बरखा और बादल एक निखार भी लाते और एक शोला भी जगा देते। प्रीत की रीत, मिलन की चाह और विरहा के लोकगीत गाए जाते-
पहले ही से नैनां थे चंचल
फिर उस पे गजब है यह काजल
दिखला दे झलक तू एक पलक
जरा और उठा मुख से आंचल
2. मेरा सैयां बुलावे आधी रात
नदिया बेरी भई
सुन रे मना हूं तेरी चेरी
नदिया लगा दे पार
नदिया गहरी नाव पुरानी
खेवट मतवारी सुने नहीं बात हमारी
मोरा सैयां बुलावे….
कोई गोरी बेकल ही कहती है-
प्रेम की चोट है बालेपन से
बेकल हूं मैं बहुत दिनन से
डोली डोला कुछ भी लाओ
आजहु जाके मिलूंगी साजन से
औरतें गाती-
झुकिया रे बदरा बरस क्यों न जाए
अब तेरी आई बहार
कहां तो लाऊं बदरा जौ-चने
कहां बोऊं कचनार
जंगल बोऊं बदरा जौ-चने
बागों बोऊं कचनार
झुकिया रे बदरिया….
तीज के दिन आते ही झूले पड़ते और औरतें मिलकर गाती-
हमारे दादाजी ने तम्बू ताना
रेशम डोर बटियां जी
कह दो हमारी दादी जी
खट्टा सिंधारा, मिट्ठी सिंधारा
तीज नवेली आइयां जी
कि बीबी तेरे खाने को
अच्छे घेवर छांटू, बाबर छांटू
ऊपर खांड गंडिरियां जी
कि बीबी तेरे हाथों को अच्छी रचनी मेंहदी
सिर को लच्छे नारे जी
सावन के एक गीत में प्राचीन दिल्ली का जिक्र है जब रात को शहरपनाह के दरवाजे बंद हो जाते थे-
अरी अम्मां जाऊं, बहनिया के देस, पपियारो बोल्यो बाग में
दिल्ली दरवाजे रे मौसी खोल दे
अरी मौसी बहन मिलन भैया आयो, पपियारो बोल्यो बाग़ में
दिल्ली दरवाजे रे लाला न खुले
दिल्ली दरवाजे रे मौसी खोल दे
अरे लाला तेरी बहन बाग़न बीच,पपियारो बोल्यो बाग़ में
बाग़न बाग़न री मौसी है फिरयो
अरी मौसी कहीं न पाई चंपा बहन, पपियारो बोल्यो बाग में
चढ़ के कोठे पे रे लाला देख ले
अरे लाला चंपा की हो गई मुट्ठी राख, पपियारो बोल्यो बाग़ में
बरसात की रिमझिम में विरह की एक और झलक-
रिमझिम रिमझिम चले फुहारें, घिर घिर घिर बदरा छाए
हाय सखी मैं किसको बताऊं, मोरे पिया अब तक नहीं आए
छाए रही अँधियारी हर सू, कूक रही है कोयल कू कू
बोल रहा है पपीहा पी सों, पिया बिन मेरा जिया घबराए
नाच रहे हैं तारे गगन में, व्याकुल है मन मोरा
लगन में अपने पिया की राह तकत हूं, मोरे पिया मोहे तरसाए
दिल्ली बागों का शहर था। जरा बारिश रुकती और लोगों के झुंड के झुंड बाग़ बगीचों का रुख करते। झूले बाग़ों में भी पड़ते और घर-घर भी खम गड़े होते। औरतें रिलमिल कर झूलतीं और यह गीत गातीं-
1. छा रही कारी घटा जिया मोरा लहराए है
सुन रही कोयलिया बावरी तू क्यों मल्हार गाए है
आ पपीहा आ इधर मैं भी सरापा दर्द हूं
आम पर क्यों जम रहा मैं भी तो रंग-ए-ज़र्द हूं
फर्क सिर्फ इतना है कि उसमें रस है मुझ में हाए है
छा रही कारी घटा…
2—देखो री मुकुट झोके ले रहा जमना के तीर
कौन बदन रानी राधिका, कौन बदन घनश्याम रे
गोर बदन रानी राधिका, कृष्ण बदन घनश्याम रे
देखो री….
क्या तू ओढ़े रानी राधिका क्या तू पहने नंदलाल
चुनरी तू ओढ़े रानी राधिका, मुकुट पहने नंदलाल
झूले का ही एक चित्ताकर्षक गीत यह था, जिसे नई-नवेली दुलहनें गाती थी—-
बरसे कारी रे बदरिया
मेरी चुनरिया, चुनरिया भीगी जाए
चुनरिया भीगी जाए रामा
लाल रंग की ओढ़ी चुनरिया हाए भिगो दी रे
मेरी चुनरिया भीगी जाए
पैयां पडूं में बांके छैला
ली जो कंठ लगाए
चुनरिया मीगी जाए….
ये दो गीत भी औरतें अक्सर गाती थीं-
बरेली के बाजार में झुमका गिरा रे
हम दोनों की तकरार में झुमका गिरा रे….
और
सरोता कहां भूल आए प्यारे ननदोइया
आगे आगे ननदी चले पीछे ननदोइया
जिनके पीछे मैं बिचारी, मेरे पीछे रौयां
बाग ढूंढने ननदी चले पीछे ननदोइया
घर ढूंढन में विचारी, पीछे पीछे सैयां
लड्डु खाएं ननदी बरफी खाएं सैयां
छत पर खड़ी लड़कियां सीढ़ियों से भागती हुई नीचे उतरी हैं, जिद कर रही हैं। कि हम भी झूलेंगे। बड़ी औरतों का गाना समाप्त हुआ तो उन्हें उतार कर खुद जम बैठीं। हंस भी रही हैं और गा भी रही हैं-
नन्ही नन्ही बुंदियां रे सावन का मेरा झूलना
इक झूला डारा मैने अंबुआ की डार में
लंबी लंबी पेंगे रे सावन का मेरा झूलना
छोटी मोटी सुइयां रे सावन का मेरा झूलना
इक झूला डारा मैंने सैयाजी के बाग़ में
लंबी-लंबी पेंगें रे सावन का मेरा झूलना
घर के बच्चे उछल-कूद रहे हैं। गड्ढों में रुके पानी में छप छप कर रहे हैं। किसी का पांव फिसल रहा है तो किसी को कोई धक्का दे रहा है। शोर मचा मचाकर चिल्लाते जा रहे हैं-
आंधी आई मेंह आया
बड़ी बहू का जेठ आया
जमना बाजार में कार्तिक का मेला लगा है। भीड़ में से एक गीत उभरता है-
बारह बरस की मैं हुई रे
अब लो मेरा ब्याह करा
दिल्ली भी ढूंढी और आगरा भी ढूंढा
कहीं न पाए भरतार
पक्का मदरसा उसका रे
जिसमें पड़े भरतार
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