शब्दों की माला से सुशोभित साहित्य। जिसने कभी रुलाया, तो कभी हंसाया। हाथ पकड़ जिसने चलना सिखाया। अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध जो दृढ़ता के साथ खड़ी हुई। गरीब, बेसहारों का सहारा बनी। जो ना मुगलों की भारी भरकम फौज से डरी ना ही ब्रितानिया हुकूमत की क्रूरता से। जिसने देशभक्तों की जय-जयकार की। जो नादिरशाह के कृत्य को कटघरे में खड़ा की। जिसने मुगल बादशाहों, कठमुल्लों को भी नहीं बख्शा। यह दिल्ली के साहित्य की ही शक्ति है जो आज भी शहर मिर्जा गालिब, मोमीन, मीर के साथ ही 1857 के अज्ञात शहीदों, आजादी के आंदोलन के मतवालों पर सजदा होता है। साहित्य, जिसने बेटियों को आगे बढऩे एवं पढऩे का जज्बा पैदा किया। जिसने महिला सशक्तिकरण की बुनियाद रखी। समाज को नई दिशा और दशा दी। आज हम इतिहास के पन्ने पलटते हुए कुछ उन चुनिंदा साहित्यकारों की कृतियों से रूबरू होंगे, जिन्होंने बेखौफ होकर सत्ता का ना केवल सामना किया बल्कि सिंहासन हिला दिया।
शहर आशोब किसी भी शहर में अपराध, हिंसा, अराजकता, निरंकुशता दुर्भाग्य की बात है। इसे ही उर्दू में शहर आशोब यानी शहर का दुर्भाग्य के नाम से लिखा गया है। ऐसा 1857 के बहुत पहले भी लिखा जाता रहा है। 16वीं-17वीं सदी में राजनैतिक, सामाजिक घटनाओं पर लिखने के लिए शहर आशोब का प्रयोग किया गया। सबसे पहला उपयुक्त शहर आशोब लिखने का श्रेय मीर जफर जताली (1658-1713) को जाता है। इन्होंने मुगल बादशाह फर्रख सियर द्वारा जारी किए गए सिक्के पर कटाक्ष करते हुए साहित्य सृजन किया। जिस पर बादशाह इस कदर गुस्सा हुए कि एक महीने के अंदर फांसी पर लटका दिया। जानकार बताते हुए हैं कि साहित्य सृजन के लिए पहले एक उपनाम बहुत जरूर माना जाता था। दिल्ली में उर्दू के पहले शायर कहे जाने वाले शेख जुहुरुद्दीन ने हातिम उपनाम रखा था। लोग उन्हें शेख जुहुरुद्दीन हातिम कहकर पुकारते थे। शहर पर लगातार हो रहे हमलों से हातिम दिल से विचलित थे। इन हमलों की वजह से शहर काफी संकरा हो चुका था। इसलिए बिना शासकों के डर एवं भय के इन्होंने लिखा कि-
पगड़ी अपनी यहां सम्हाल चलो
और बस्ती ना हो ये दिल्ली है।
ब्रितानिया हुकूमत से नहीं सहमी कलम सन 1857, अंग्रेजी शासन के खिलाफ चंद आजादी के मतवालों ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया और क्रांतिकारी मेरठ से दिल्ली आ गए। इसके बाद तो चार महीने तक दिल्ली जंग का मैदान बनी रही। सितंबर महीने में अंग्रेजों ने फिर से दिल्ली पर कब्जा किया तो चारो तरफ कत्लेआम किया गया। अंग्रेजी फौजों ने पुरानी दिल्ली की सभी गली में घुसकर लोगों को गोली मारी। हालत यह थे कि चारो तरफ लाशें दिखाई दे रही थी। चीख पुकार मचा हुआ था। कूचा, कटरा तहस नहस किए गए। जिस भी साहित्यकार ने इन दिनों में अंग्रेजों के खिलाफ कुछ लिखा था उसे ढूंढ-ढूंढकर मारा जा रहा था। ऐसे में मोहसीन नकवी ने बेखौफ लिखा कि-
मोहसीन हमारे साथ बड़ा हादसा हुआ।
हम रह गए हमारा जमाना चला गया।।
मौलाना मुहम्मद हुसैन ने 1880 में एक किताब लिखी आबे-हयात। मौलाना, जौक के शार्गिद थे। उनके पिता मौलवी मुहम्मद बकर, जिन्होंने पुरानी दिल्ली में लिथेग्राफ्रिक प्रिंटिंग प्रेस खरीदा और दिल्ली का पहला उर्दू अखबार, दिल्ली उर्दू अखबार लांच किया। इस अखबार में 1857 की क्रांति के समर्थन एवं अंग्रेजों के खिलाफ खूब साहित्य प्रकाशित हुआ। मोहम्मद हुसैन की एक कविता भी इन्हीं दिनों इस अखबार में प्रकाशित हुई थी, जो आजकल राष्ट्रीय संग्रहालय में मौजूद है। अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद मौलवी बकर को बिना ट्रायल फांसी पर लटका दिया। क्रांति के दौरान दिल्ली की दशा को मिर्जा गालिब के खतूत बड़ी संजीदगी से बयां करते है। जिसे मिर्जा गालिब ने 11 मई 1857 से लेकर 31 जुलाई 1858 तक दस्तंबू नामक डायरी में दर्ज किया। इन दिनों गालिब भी घर में नजरबंद थे। इसकी भाषा फारसी है। मिर्जा इस क्रांति के बाद दिल्ली के हालात को लिखते हैं कि-
गम-ए-मर्ग, गम-ए-फिराक,, गम-ए-रिज्क, गम-ए-इज्जत।
गालिब के अधिकतर कलेक्शन को 1857 में ही अंग्रेजों ने आग के हवाले कर दिया। गालिब लिखते हैं कि- अल्लाह अल्लाह दिल्ली ना रही, छावनी है, ना किला, ना शहर, ना बाजार, ना नहर, किस्सा मुक्तसर, शहर सहरा हो गया।
साहित्य की शक्ति ऐसी कि बादशाह से नहीं डरे
साहित्यकार निर्भीक होता है। इसका एक उदाहरण मिर्जा मोहम्मद रफी सौदा (1713-1781) के एक किस्से से पता चलता है। दरअसल, मोहम्मद रफी सौदा का जन्म नया बाजार में हुआ था। सन 1745 में सौदा परसियन में लिखते थे। शाह आलम द्वितीय उस समय दिल्ली के तख्त पर आसीन थे। उन्होंने अपनी गजल, उर्दू के शौक के चलते सौदा को बुलाते रहते। लेकिन जल्द ही सौदा उब गए। एक दिन बादशाह ने सुबह-सुबह बुलाया तो सौदा पहुंच गए। बादशाह बोले-मिर्जा आप दिन में कितनी गजल लिख लेते हो। सौदा-माई लॉर्ड, तीन से चार। बादशाह-मेरे दोस्त, इतनी तो मैं नहाते हुए लिख लेता हूं। सौदा-आश्चर्य नहीं है, इसलिए उसमें से बदबू आती है। इसके बाद बादशाह ने कई बार सौदा को बुलाया लेकिन वो नहीं आए। बादशाह उन्हें मलिक-उल-शोरा का खिताब देने की पेशकश की लेकिन उन्होंने मना कर दिया। सौदा ने बादशाह से बिना डरे बेखौफ लिखा कि- सुखन मेरा है, मुकाबिल मेरे सुखन के ही के मैं सुखन से हूं मशहूर और रुखन मुझसे।।
अपराध के खिलाफ मुखर अठारहवीं शताब्दी के मध्य शाहजहांनाबाद में कानून व्यवस्था बिगड़ गई थी। चोरी, लूटपाट, डकैती की घटनाएं नियमित होने लगी। लोगों का जीना मुहाल हो चुका था। ऐसे में साहित्यकारों ने मोर्चा संभाला और आपराधिक घटनाओं को रोकने में विफल प्रशासन को आड़े हाथों लेते हुए साहित्य सृजन किया। खुर्शीद-उल-इस्लाम ने इस बारे में लिखा है कि इस समय मानों झुंड में अपराधी घूम रहे थे। जो पुलिस की मिलीभगत की वजह से सजा तक नहीं पाते थे। कवि शाम के समय मुशायरे के लिए जाते भी डरते थे कि कहीं लूटपाट के शिकार ना हो जाएं। उन्होंने लिखा कि- इस जमाने का जो देखा तो है उल्टा इंसाफ गुर्गे आजाद रहे और हों शुभान पहरे में।
धर्म के ठेकेदारों पर तंज
मिर्जा मोहम्मद रफी सौदा धर्म के ठेकेदारों के आगे नतमस्तक नहीं हुए और ऐसे धर्म के कथित ठेकेदारों को जमकर कोसा। ऐसे समय में जब मौलवी शासन में प्रभाव रखते थे। उन्होंने लिखा कि--अमामे को उतार के परहियो नमाज शेख
सजदे से वरना सर को झुकाया ना जाएगा।।
धर्म के ठेकेदारों को मीर ने भी नहीं बख्शा है। उन्होंने लिखा है कि- शेख जो है मस्जिद में नंगा रात को था मैखाने में जुब्बा, खिर्का, कुर्ता, टोपी मस्ती में ईनाम किया।।
मीर ने सन 1760 में दिल्ली पर हुए हमलों को काफी नजदीक से देखा था। शाह आलम द्वितीय के प्रभाव में भी बहुत कमी आयी। लगातार आक्रमण की वजह से लोग दहशत में थे। मीर के कई रिश्तेदार, दोस्त या तो मार दिए गए या फिर दिल्ली छोड़ कर चले गए। वो लिखते हैं कि दिल्ली में अबके आकर उन यारों को ना देखा कुछ वे गये शताभी कुछ हम भी देर आए।।