यूपी निकाय चुनाव ‘ट्रिपल टेस्ट’  की अग्निपरीक्षा पास कर चुका है। निकाय चुनाव की आधिकारिक दुंदुभी बज चुकी है। अधिसूचना जारी कर दी गई है और आरक्षित सीटों का ब्यौरा भी सार्वजनिक हो चुका है। राजनीतिक दल एक दूसरे से दो-दो हाथ करने को तैयार है। यूपी में नगर निकाय के बाद अगले साल लोकसभा का चुनाव होना है। इस वजह से इसे ‘लोकसभा 2024’ का सेमीफाइनल माना जा रहा है। नगर निकाय यानी नगर पंचायत, नगर पालिका और नगर निगम चुनाव को लेकर सभी सियासी दल शनै: शनै: अपने पत्ते खोल रहे हैं। इस चुनाव पर देशभर के सियासी दलों की निगाहें टिकी हैं। क्योंकि यह सियासी दलों का अपनी जमीनी हकीकत समझने का सबसे बड़ा मौका है। शायद यही वजह है कि सभी राजनीतिक पार्टियां पूरे दमखम के साथ चुनाव की तैयारियों में जुटी हैं। पार्टियों के आरंभिक प्रचार अभियानों से यह साफ हो चुका है कि चुनाव पर राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रमों का भी असर पडेगा।

बीजेपी ने लोकसभा की सभी 80 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। इतनी सीटें जीतने के लिए स्थानीय स्तर पर मजबूत दमखम दिखाने की जरूरत है। पार्टी ने नगर निकाय चुनाव में सभी नगर निगमों, 200 नगर पालिका परिषदों के साथ नगर पंचायतों में भगवा फहराने की जी-तोड़ कोशिश करेगी। प्रदेश में कुल 756 नगरीय निकाय संस्थाओं के चुनाव होने हैं। भाजपा के टारगेट ने निकाय चुनाव को रोमांचक बना दिया है। चंद दिनों पहले तक यूपी के किसी बाशिंदे से पूछा जाता तो मुख्य मुकाबला भाजपा बनाम सपा बताता। लेकिन राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द होने की घटना ने परिदृश्य बदल दिया है। उधर, बसपा सुप्रीमो मायावती भी निकाय चुनाव के जरिए दलित-मुस्लिम गठजोड़ को साधने में जुटी है। बसपा पंचायत या नगर निकाय चुनावों से अमूमन दूरी बनाती रही है, उसने इस बार चुनाव मैदान में पूरी ताकत झोंकने का मन बनाया है।

राहुल गांधी के सियासी तेवर इन दिनों सुर्खियों में हैं। संसद सदस्यता रद्द होने के बाद वो केंद्र की मोदी सरकार पर और अधिक आक्रामक हैं। कांग्रेस पूरे देश में धरना-प्रदर्शनों के चलते शक्ति प्रदर्शन करना चाहती है। पार्टी इस पूरे प्रकरण के जरिए अपने पुराने वोटरों को एक बार फिर अपने पाले में खींचने की जद्दोजहद में जुटी है। हालांकि राहुल के मुद्दे पर कांग्रेस को कितना जनसमर्थन मिलेगा यह तो भविष्य के गर्त में है लेकिन जिस तरह जर्मनी के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की टिप्पणी के बाद कांग्रेस बैकफुट पर गई है उससे भाजपा जरूर उत्साहित हुई है। जर्मन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की टिप्पणी पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित करता ट्वीट किया था। जिसके बाद तो भाजपा हमलावर हो गई। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि लोकतंत्र के समक्ष जो खतरे उत्पन्न हुए हैं, उससे कांग्रेस खुद निपटेगी। वहीं कांग्रेस के पूर्व वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो यहां तक कहा कि पार्टी को विदेश से समर्थन की जरूरत नहीं हैं। वहीं केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण समेत भाजपा के वरिष्ठ नेता अनुराग ठाकुर, किरेन रिजिजू ने दिग्विजय सिंह के बयान पर कडी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

भाजपा यूपी निकाय चुनाव में विदेशी हस्तक्षेप, राहुल द्वारा ओबीसी का अपमान सरीखे मुद्दे उठा रही है। एक और मुद्दा निकाय चुनाव में खूब चर्चा में है। हाल ही में प्रयागराज की विशेष अदालत ने माफिया अतीक अहमद को उमेश पाल अपहरण केस में दोषी ठहराया है। 44 साल बाद किसी मामले में अतीक अहमद को दोषी पाया गया है। प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार इसे बेहतर कानून व्यवस्था का नतीजा बता रही है। भाजपा, अतीक अहमद-मुख्तार अंसारी के बहाने बेहतर कानून व्यवस्था को भुनाने में लगी है। चुनाव से ठीक पहले योगी राज में 10 हजार एनकाउंटर की खबरें भी खूब चर्चा में हैं। अतीक अहमद प्रकरण से बसपा जरूर पेशोपेश में पड गई है। दरअसल, बसपा ने अतीक अहमद की पत्नी शाइस्ता परवीन को प्रयागराज से महापौर प्रत्याशी घोषित किया था। हालांकि, इस तरह की खबरें आनी शुरू हो चुकी है कि बीएसपी शाइस्ता का टिकट काट रही है लेकिन अभी तक आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है। पिछली बार बसपा ने महापौर की दो सीटें जीती थी। यूपी में भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी सपा निकाय चुनावों में पूरी ताकत झोंके हुए हैं। सपा ने अपने प्रत्येक विधायक को तीन-तीन वार्डों की जिम्मेदारी दी है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव खुद प्रचार कार्यों की निगरानी कर रहे हैं। निकाय चुनाव के बहाने अखिलेश यादव लोकसभा चुनावों की तैयारियों को भी धार देना चाह रहे हैं। सपा अपने पुराने जिताऊ फार्मूले मुस्लिम-यादव (एमवाई) को एक बार फिर आजमा रही है।

हालही में जारी नवनियुक्त जिला अध्यक्षों की सूची से इस कयास को और बल मिलता है। सपा ने 25 जिला अध्यक्षों की सूची जारी की थी। जिसमें केवल एक ब्राह्मण, एक दलित, चार मुस्लिम हैं। बाकि अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं। कुशवाहा, गुर्जर, पाल, प्रजापति, सैनी, निषाद बिरादरी को प्रतिनिधित्व दिया गया है। यादव वर्ग को अच्छा खासा प्रतिनिधित्व दिया गया है। माना जा रहा है कि अखिलेश यादव की रणनीति मुस्लिम, यादव और दलित वोटों का नया समीकरण तैयार करने की है। पिछले चुनावों में ब्राह्मणों के अधिकतर वोट भाजपा में जाने के चलते सपा ने अपने परंपरागत वोटरों को सहेजना शुरू कर दिया है।

2017 के नगर निकाय चुनाव में बीजेपी 16 नगर निगम में से 14 में अपना मेयर बना पाई थी। दो मेयर बसपा के बने थे। नगर निगम में भी बीजेपी का प्रदर्शन बढ़िया था हालांकि नगर पालिका और नगर पंचायत में उसे कड़ी टक्कर मिली थी। सपा और निर्दलीय के चलते मुकाबला कांटे का हुआ था। बीजेपी लोकसभा चुनाव की तैयारियों का रिहर्सल मानते हुए निकाय चुनाव में विजय पताका फहराने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। अब देखना है कि यूपी की जनता किसके सिर पर ताज पहनाती है।

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