पंडिज जवाहर लाल नेहरू का पार्थिव शरीर (jawaharlal nehru death) अभी उनके घर पर ही रखा हुआ था कि उनके उत्तराधिकार का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। बड़ी उम्र के कांग्रेस नेता, जिन्हें ‘सिंडिकेट’ कहा जाता था, इस मामले में एकजुट थे। विरासत की लड़ाई को लेकर गृह सचिव वी. विश्वनाथन कुछ ज्यादा ही आशंकित थे। उन्होंने सभी राज्यों को यह सन्देश भेज दिया कि दिल्ली में बहुत ज्यादा तनाव था। इसके बाद जल्दी ही उन्होंने यह निर्देश जारी कर दिया कि सुरक्षा सेनाओं को किसी भी तरह की गड़बड़ी से निपटने के लिए सभी जरूरी सावधानियां बरतनी चाहिए। सेना के अधिकारियों और जवानों को छुट्टी से वापस बुला लिया गया। लेकिन इतना कुछ करके भी सच्चाई यह थी कि देश के किसी भी कोने से बगावत की हल्की-सी बू तक नहीं आई।
बल्कि नेहरू की अन्त्येष्टि के दिन सेना प्रमुख जनरल चौधरी दिल दौरे से बीमार पड़े हुए थे। यह सच था कि उन्होंने पश्चिमी कमान के 6,000 जवानों को दिल्ली बुलाया या, लेकिन इसके पीछे शवयात्रा और अन्तिम संस्कार के दौरान भारी भीड़ को नियंत्रित करने का उद्देश्य था। जनरल चौधरी अपनी इस कार्रवाई की जानकारी राष्ट्रपति को भी दे चुके ये। विश्वनाथन का कहना था कि अफवाहों को खत्म करने के लिए उन्होंने सेना को मार्च-फास्ट का आदेश दिया था। नेहरू ने भले ही अपना कोई वारिस नियुक्त नहीं किया था, लेकिन वे अपने पीछे एक मजबूत राजनीतिक ढांचा छोड़ गए थे। इसलिए उनका उत्तराधिकारी चुनने में कोई कठिनाई नहीं आई और पूरी प्रक्रिया बहुत सहज ढंग से सम्पन्न हो गई।
नेहरू की अन्त्येष्टि के दिन त्यागराज मार्ग पर स्थित मोरारजी देसाई (morarji desai) के घर पर काफी हलचल थी। घर के बगीचे और बरामदे में उनके समर्थकों की भीड़ जमा थी। उनके कम-से-कम दो समर्थकों वित्त राज्यमंत्री तारकेश्वरी सिन्हा और मोरारजी के इकलौते पुत्र कान्ति देसाई (kanti desai) के हाथ में कांग्रेस सांसदों (congress party) की सूची दिखाई दे रही थी। उन्हें मोरारजी या शास्त्री का समर्थक दशनि के लिए उनके नाम के आगे सही या सवाल का निशान बनाया जा रहा था।
कुलदीप नैयर अपनी किताब में लिखते हैं कि एक पत्रकार होने के नाते वो मोरारजी देसाई के आवास का रुख किए। दरअसल, वो इस बात की पुष्टि करना चाहता था कि क्या मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री के पद के दावेदार थे। कुलदीप नैयर उनसे नहीं मिल पाए, लेकिन उनके समर्थकों ने कहा, “चाहे कुछ भी हो जाए, मोरारजी मुकाबले में उतरेंगे और आसानी से जीतेंगे।” एक व्यक्ति ने बड़े उत्साह से मुझे बताया कि पंजाब के प्रताप सिंह कैरों, उड़ीसा के बीजू पटनायक, गुजरात के बलवंत राय मेहता, उत्तर प्रदेश के. सी. बी. गुप्ता और पश्चिम बंगाल के पी.सी. सेन समेत कई दिग्गज कांग्रेस नेता मोरारजी भाई के दावे का समर्थन कर रहे थे। कांति देसाई ने कुलदीप नैयर से कहा कि “शास्त्री से कह दो कि मुकाबला न करें,” कुलदीप शाम को शास्त्री के घर पहुंचे।
उन्होंने कहा,
“मैं सर्वसम्मति के पक्ष में हूं। कुछ देर खामोश रहने के बाद उन्होंने आगे जोड़ा, “फिर भी अगर चुनाव होता है तो मोरारजी से मुकाबला कर सकता हूं और जीत भी सकता हूं, लेकिन इंदिरा गाधी से नहीं। फिर मानो एक आदर्श व्यवस्था का सुझाव देते हुए उन्होंने कहा, “इन हालात में हमें सरकार की बागडोर संभालने के लिए जयप्रकाश नारायण जैसे व्यक्ति की जरूरत है।” उन्होंने मोरारजी तक यह सन्देश पहुंचाने के लिए कहा कि आपसी सहमति से नेता का चुनाव करना ठीक रहेगा। उन्होंने दो नाम सुझाए-जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी।
कुलदीप नैयर वहां से सीधे मोरारजी देसाई के घर गया और उन तक शास्त्री का सन्देश पहुंचा दिया। जयप्रकाश नारायण के बारे में मोरारजी का कहना था कि वे ‘एक भ्रमित व्यक्ति’ थे, जबकि इन्दिरा गांधी एक ‘छोटी-सी छोकरी’ मात्र थी। उन्होंने कहा कि मुकाबले को रोकने का एक तरीका था कि उन्हें पार्टी के नेता के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।
कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने बीच-बचाव करते हुए पार्टी को एक सर्वसम्मत नेता चुनने के लिए कहा तो पार्टी ने ऐसे नेता का पता लगाने की जिम्मेदारी मोरार जी देसाई के हाथ में सौंप दी। दोनों खेमों के माहौल को देखते हुए कुलदीप नैयर ने ‘यू.एन.आई’ के टिकर पर यह खबर जारी की कि -प्रधानमंत्री के पद के लिए सबसे पहले भूतपूर्व वित्तमंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी दावेदारी का ऐलान कर दिया है। माना जाता है कि उन्होंने अपने सहयोगियों से कहा है कि वे इस पद के उम्मीदवार हैं। ऐसा समझा जाता है कि उन्होंने कहा है कि चुनाव जरूरी है और वे मुकाबले से पीछे नहीं हटेंगे। बिना विभाग वाले मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को एक और उम्मीदवार माना जा रहा है, हालांकि वे खुद कुछ नहीं कह रहे हैं। उनके निकट सूत्रों का कहना है कि वे मुकाबले को टालने की हर सम्भव कोशिश करेंगे।
खुद कुलदीप नैयर को यह अंदाजा नहीं था कि यह छोटी-सी खबर मोरारजी को इतना नुकसान पहुंचा देगी। सरकारी संस्था ‘प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो’ (पी.आई.बी.) से जुड़ा रहने के कारण मुझे छपे हुए शब्द की ताकत का अन्दाजा नहीं था। उनके समर्थकों का कहना था इससे उन्हें कम-से-कम 100 वोटों का घाटा हो गया। लोग सोचने लगे कि मोरारजी देसाई इतने महत्त्वाकांक्षी थे कि अपना दावा पेश करने के लिए उन्होंने नेहरू की चिता की आग ठंडी होने की भी प्रतीक्षा नहीं की थी।
बाद में मुझे इस खबर के चमत्कार का अहसास जरूर हो गया था। के. कामराज संसद भवन सीढ़ियों से उतरते हुए मेरे कान में फुसफुसाए थे, “थैंक्यू” शास्त्री ने मुझे घर बुलाकर कहा था, “अब किसी और स्टोरी की जरूरत नहीं है। मुकाबला खत्म ही समझो!” उनके कहने का मतलब था कि पलड़ा उनके पक्ष में झुक चुका था और उनके चुने जाने में कोई सन्देह नहीं रह गया था। मैंने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि इस खबर के पीछे किसी को फायदा या नुकसान पहुंचाने की मंशा नहीं थी। उन्होंने होंठों पर उंगली रखकर मुझे चुप रहने का संकेत किया। बाद में, पार्टी का नेता चुने जाने के बाद उन्होंने संसद भवन की बाहरी सीढ़ियों पर सबके सामने मुझे गले से लगा लिया। शास्त्री ने मुझे ‘पी.आई.वी.’ में लीट आने और उनका सूचना अधिकारी बनने के लिए कहा। मैंने उनसे कहा कि मैं लौटने के लिए तैयार था बशर्ते कि मुझे अमरीकी राष्ट्रपति के प्रेस सचिव जैसा दर्जा प्राप्त हो। उन्होंने कहा कि ऐसा करना मुश्किल था, क्योंकि “तो फिर मोरारजी देसाई कहेंगे कि मैं तुम्हारी मदद का बदला चुका रहा हूं।”
मैं उनके स्टाफ में भर्ती नहीं हुआ। जहां तक मोरारजी देसाई का सवाल था, वे जिन्दगी भर यही समझते रहे कि मैंने शास्त्री की तरफदारी करते हुए ही वह खबर जारी की थी। मैं जब भी इस मामले का जिक्र करता तो वे कहते, “लोगों को इस्तेमाल करने का शास्त्री का अपना तरीका था, और लोगों को इसका पता तक नहीं चलता था।” मेरे खयाल से मोरारजी को अपने समर्थकों को दोष देना चाहिए था, जो नेहरू की अन्त्येष्टि के दिन ही सीना ठोंककर उनकी दावेदारी की बात करने लगे थे। इससे बहुत-से सांसद उनसे उखड़ गए थे। कामराज ने घोषणा की कि सर्वसम्मति शास्त्री के पक्ष में थी। उन्हें औपचारिक रूप से नेता चुनने की रस्म सम्पन्न की गई और उन्होंने देश के नए प्रधानमंत्री के रूप में सरकार की बागडोर संभाल ली। मोरारजी देसाई ने इस फैसले को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि कामराज ने सर्वसम्मति के मामले में हेराफेरी से काम लिया था।