एक बार लाला छुन्नामल के यहां, जो दिल्ली के मशहूर रईस थे, महफिल जमी हुई थी। मुश्तरी गजल गा रही थी। रदीफ काफिया’ (गजल की पंक्ति के अंत में आने वाला अन्त्यानुप्रास तथा उसके बाद शब्द समूह) था-‘हुआ चाहता है।’ मुश्तरी का शायद पांव भारी था और किसी मनचले ने यह ताड़ लिया था। उसने यह शेर पढ़ दिया-
हमल (गर्भ) नौ महीने का है मुश्तरी को
कोई दम में लड़का हुआ चाहता है।
मुश्तरी थोड़ी देर के लिए तो गुस्से को पी गई मगर जब नाचती हुई उन साहब के पास से गुजरी तो ऊंची आवाज में वह शेर गाया-
करो कुरते टोपी की अब तुम तयारी
कि हमशीराजादां (भानजा) हुआ चाहता है।
यह बड़ी गहरी चोट थी और वह साहब शर्मिंदगी के मारे जमीन में गड़ गए। किसी नवाब साहब के यहां मुज़रे की महफ़िल जमी हुई थी। एक फक्कड़ आदमी भी महफिल में आकर बैठ गया। भाषा में असंयत तो था ही महफिल के नियम-कायदों से भी अपरिचित था उसने बहुत बढ़-चढ़कर उचित-अनुचित बोलना शुरू कर दिया। किसी साहिब ने मुरजेवाली से कहा, “बी जान, आप खामोश क्यों बैठी हैं? जरा इन साहब की जबान को लगाम दीजिए।” मुज़रेवाली ने फक्कड़ हजरत से पूछा, “आपका इस्म-ए-शरीफ ?” फक्कड़ ने जवाब दिया, “खाकसार को शराफ़त कहते हैं। बी साहबा यह सुनकर जलसे में बैठे लोगों से बोलीं, “अब आप ही गौर फरमाइए, इनके कौन मुंह लगे, हैं तो ‘शर’ और ‘आफत’ का मजमूआ ?” महफिल कहकहों से गूज उठी और उन साहब से फिर न बोला गया।
एक बार कोई नवाब साहब महफिल में तशरीफ लाए। मुजरेवाली से उनका याराना था। उसने खड़े होकर और झुककर नवाब साहब को सलाम किया और फिर ठस्से से बैठ गई। नवाब साहब ने उसका हल्के नीले रंग का (कासनी) लिबास देखकर कहा, “आज तो शरबत-ए-कासनी बनी बैठी हो।” बी साहवा फोरन बोली, “मैं हूं भी तो दवा-ए-दर्द-ए-जिगर घोलकर पी जाने का इरादा है क्या ?”
मुजरेवालियों में डेरेदारनियां बहुत ऊंचे दर्जे की तवाइफें मानी जाती थीं। ये किसी एक की पाबंद होकर रहती थीं जिसकी हो गई सिर्फ उसके लिए और उसके करीबी दोस्तों के दिल बहलाव के लिए नाचती गाती थीं। ये तवाइफें नाचने-गाने में तो कमाल करती ही थीं मगर तहजीब, सलीक़ामंदी और शेर-ओ-शायरी में भी माहिर होती थीं। इनके कोठे और हवेलियां शिष्टाचार और कला के केन्द्र समझे जाते थे।