हुक्का लाने में देरी होने पर नौकर के मरोड़ता था कान

सर थॉमस थियोफिलस मेटकाफ दिल्ली में लंबे समय गर्वनर जनरल के एजेंट के रूप में तैनात रहे। बहादुर शाह जफर के शासन काल में सन 1852 में दिल्ली में रहते उन्हें चालीस साल हो गए थे। वह न सिर्फ इस शहर बल्कि इसके बादशाह को भी खूब जानता था।

मैटकाफ संजीदा, दुबला-पतला और ज़हीन व नीली आंखों और गंजे सिर वाला होशियार शख्स था। उसकी बेटी एमिली का कहना था कि ‘उन्हें हैंडसम तो नहीं कहा जा सकता था, लेकिन उसका मानना था कि उसने यह कमी ‘छोटे-छोटे खूबसूरत हाथ-पांवों से पूरी कर ली थी। वह बहुत परिष्कृत था और इतना तुनकमिज़ाज कि वह औरतों को पनीर खाते भी नहीं देख सकता था। यहां तक कि उसका कहना था कि “महिलाएं अगर संतरा या आम भी खाना चाहें तो उनको ऐसा अपने गुसलखाने की तन्हाई में करना चाहिए।”

वह कभी सोच भी नहीं सकता था कि वह कभी पूर्व अंग्रेज़ों की तरह मुगल लिबास यानी पगड़ी और जामा पहन सकता है। और न ही वह मुगल दरबार के सबसे पहले रेजिडेंट सर डेविड ऑक्टरलोनी की नकल करने की कल्पना कर सकता था, जो हर शाम अपनी तेरह हिंदुस्तानी बीवीयों को सैर कराने के लिए किले की चारदीवारी के चारों ओर टहलने ले जाता था और उनमें से हर एक अपने-अपने हाथी पर बैठी होती थी।” विधुर होने की वजह से, वह अकेला रहता था और उसके फैशनेबल और सादे सूट सेंट जेम्स का पलफोर्ड नियमित रूप से उसे लंदन से भेजता रहता था।

उसकी इकलौती हिंदुस्तानी आदत एक चांदी का हुक्का पीने की थी और इसका शौक वह हर सुबह नाश्ते के बाद ठीक तीस मिनट तक करता। अगर कभी उसके नौकर इसे लाने में देर लगा देते तो वह अपने सफेद दस्ताने मंगवाता। वह उसके सामने एक चांदी की थाल में पेश किए जाते जिन्हें उठाकर वह आहिस्ता-आहिस्ता अपनी नाजुक उंगलियों पर चढ़ाता, और फिर ‘बहुत संजीदगी से उस नौकर को उसकी गलती पर लेक्चर देता और फिर ‘नम से लेकिन मज़बूती के साथ उसका कान मरोड़ता और फिर उसको जाने देता। यह सजा बहुत कारगर थी ।

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