मुगल शासन काल में इस पत्रकार ने की निर्भीक पत्रकारिता
मौलवी मोहम्मद बाकर दिल्ली के रहने वाले थे। उन्होंने दिल्ली कॉलेज में शिक्षा पाई थी और वहां कुछ दिन पढ़ाया भी था, मगर बाद में तख्वाह कम होने की वजह से नौकरी छोड़ दी थी। फिर कुछ दिन उन्होंने अंग्रेजों के तहत काम किया और फिर विदेशी व्यापारियों के लिए एक मुनाफाबख़्श बाज़ार बनवाया और एक इमामबाड़ा भी बनवाया जिसमें वह कभी-कभी मजलिसें भी पढ़ते थे।”
उनके देहली उर्दू अखबार की ज्यादातर खबरें उनके अपने विचारों की अभिव्यक्ति करती थीं और ज्यादातर स्थानीय सियासत या धार्मिक मसलों के बारे में होती थीं। उनमें मास्टर ताराचंद के धर्मांतरण, सूफी मजारों के चमत्कारों, या दिल्ली के विभिन्न त्योहारों और उनमें कभी-कभार होने वाले झगड़ों का जिक्र होता था। जैसे 1852 के मुहर्रम में का शीया-सुन्नी बवाल। अक्सर इसमें किले की खादमाओं के यौन भ्रष्टाचार का जिक्र और उनकी सजा की गपशप भी होती थी।”
जब से वाकर के बेटे मोहम्मद हुसैन ने अपने पिता की अखबार निकालने में मदद करनी शुरू की थी, तब से अखबार ने साहित्यिक और काव्यात्मक मामलों में भी दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था। मोहम्मद हुसैन एक उभरते हुए शायर थे, जो आजाद के नाम से लिखते थे। वह अक्सर मुशायरों में पढ़ी जाने वाली ताजा तरीन गजलें भी अखबार में छापते और हमेशा मोहम्मद बाकर के दोस्त और अपने उस्ताद जौक की गालिब के मुकाबले में तरफदारी करते।
जब गालिब को जुआ खेलने के इल्जाम में पकड़ा गया, तो उनके अखबार ने बड़ी मिर्च-मसाले के साथ इस बदनामी की खबर को छापा। अगर कभी इस अखबार में बाहर की दुनिया का जिक्र भी होता तो सिर्फ दिल्ली के आसपास के शहरों या ज्यादा से ज्यादा कलकत्ता का। ब्रिटेन का जिक्र तो शायद ही कभी होता। 1840 के पूरे दशक में कुल सात बार कंपनी के मुल्क का नाम आया जो उन सभ्य मुस्लिम देशों से बहुत कम था, मसलन मिस्र, या फिर ईरान, जहां से मोहम्मद बाकर का खानदान हिंदुस्तान आया था। “