मिट्टों के दियों की कतारें, सरसों के तेल से भींगी लौ। शाम होते ही जिसकी रोशनी से ना केवल घर प्रकाश से नहा उठता बल्कि मन में खुशियों का पटाखा फूट पड़ता। दिवाली मनाने का यह जोश और जज्बा दशहरे के बाद से ही शुरू हो जाता था। दिल्लीवालों का हर त्योहार मनाने का अपना अलग ही अंदाज होता है। फिर दिवाली तो धूम धड़ाके से भरपूर त्योहार है। मिठास में घुला यह त्योहार बंधुत्व की भावना प्रबल करता है। तभी तो दिल्ली पर शासन करने वाले लगभग हर शासक ने इस त्योहार को बढ़ चढ़कर सेलिब्रेट किया। मुगलकाल में औरंगजेब को यदि छोड़ दें, तो सारे मुगल शहंशाह दिवाली को ना केवल उल्लासपूर्ण तरीके से मनाते थे बल्कि दान एवं पूजा पाठ भी करवाते थे। अकबर, जहांगीर, शाहजहां तो हाथी पर सवार होकर प्रजा का उल्लास देखने पहुंच जाते थे। बहादुर शाह जफर विशेष पूजा का आयोजन करने के बाद तुलादान करते थे। सोने-चांदी के आभूषण गरीबों में बांटे जाते थे। मुगलकाल से पहले दिल्ली सल्तनत में भी दिवाली मनाने के साक्ष्य मिलते हैं। तुगलक वंश के शासक भी दिवाली मनाते थे। इस अंक में हम इतिहास के झरोखे से दिवाली सेलिब्रेशन से रूबरू होंगे।
तुगलक की दिवाली मुहम्मद बिन तुगलक दिल्ली सल्तनत में तुुगलक वंश का शासक था। गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के बाद उसका बेटा जूना खां, मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से गद्दी पर बैठा। संभवत : मध्यकालीन सभी सुल्तानों में तुगलक सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य शासक था। इतिहासकारों की मानें तो तुगलक ने दिल्ली पर 1324 से 1351 तक शासन किया। पहली बार इन्हीं के शासन में दिवाली मनाने के प्रमाण मिलते हैं। इनकी हिंदू पत्नियां हरम में दीप जलाती थी। तुगलक दिवाली समेत कई अन्य हिंदु त्योहार भी मनाता। दिवाली मनाने की यह परंपरा लगभग एक सदी तक चलती रही।
मुगलों की दिवाली मुगलकाल में विभिन्न हिंदू और मुसलिम त्योहार खूब उत्साह और बिना किसी भेदभाव के मनाए जाते थे। अनेक हिंदू त्योहार मसलन दीपावली, शिवरात्रि, दशहरा और रामनवमी को मुगलों ने राजकीय मान्यता दी थी। मुगलकाल में दिवाली की रौनक खूब फबती थी। तीन-चार हफ्ते पहले ही महलों की साफ-सफाई और रंग-रोगन के दौर चला करते। ज्यों-ज्यों पर्व के दिन नजदीक आने लगते, त्यों-त्यों खुशियां परवान चढऩे लगतीं। दीयों की रोशनी से समूचा राजमहल जगमगा उठता, जिसे इस मौके के लिए खासतौर पर सजाया-संवारा जाता था। इतिहासकार बताते हैं कि बाबर ने इसे एक खुशी का मौका के तौर पर मान्यता दी थी। वे खुद दिवाली को जोश ओ खरोश से मनाते थे। इस दिन पूरे महल को सजाया जाता था। पंक्तियों में लाखों दीप प्रज्ज्वलित किए जाते थे। इस मौके पर शहंशाह बाबर अपनी गरीब रियाया को नए कपड़े और मिठाईयां बांटते थे। बाबर के बाद हुमायूं ने इस परंपरा को बरकरार रखा। हुमायूं महल में महालक्ष्मी के साथ अन्य हिंदू देवी देवताओं की पूजा भी करवाते और गरीब अवाम को सोने के सिक्के उपहार में देते। लक्ष्मी पूजा के बाद जमकर आतिशबाजी की जाती थी। फिर 101 तोप भी चलाई जाती थी।
इस तरह दिवाली पर शुरू हुआ अवकाश अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल ने अपनी किताब आइना-ए-अकबरी में दिवाली के बारे में विस्तार से लिखा है। दिवाली पर अवकाश का सिलसिला अकबर के शासनकाल में शुरू हुआ। दरअसल, शहंशाह अकबर ने अपनी सल्तनत में विभिन्न समुदायों के कई त्योहारों को शासकीय अवकाश की फेहरिस्त में शामिल किया था। इसी लिस्ट में दिवाली को भी शामिल किया गया। दिवाली मनाने की शुरूआत दशहरे के बाद ही शुरू हो जाती थी। अबुल फजल ने लिखा है कि दिवाली की सांझ पूरे राज्य में मुंडेर पर दीपक जलाए जाते थे। महल की सबसे लंबी दीवार पर कंदील लटकाए जाते थे। यही नहीं महल में पूजा भी आयोजित होती। बादशाह ब्राम्हणों को पूजा पाठ के बाद दान भी देते थे। जहांगीर के शासन में भी दिवाली धूमधाम से मनाई जाती थी। जहांगीर इस शुभ दिन चौसर खेलते। रात में अपनी बेगम के साथ आतिशबाजी का लुत्फ लेने निकलते थे।
शाहजहां का 56 राज्यों का भोज शाहजहां दिवाली के अवसर पर 56 राज्यों से अलग-अलग मिठाई मंगाकर 56 प्रकार की थाल सजाते थे। शाहजहां के दौरान अपने शहीदों को याद करते हुए सूरजक्रांत नाम के पत्थर पर सूर्य किरण लगाकर उसे पुन: रोशन किया जाता जो साल भर जलता था। इसके अलावा एक 40 फुट का आकाश दीप जलाया जाता जिसमें 40 मन कपास के बीज का तेल भी डाला जाता था। शाहजहां के शासनकाल में भव्य आतिशबाजी होती थी। जिसमें महिलाओं के लिए अलग तरह से आतिशबाजियां होती थी और आम जनता के देखने के लिए भी आतिशबाजियां होती थी। शाहजहां के काल में दिल्ली में आतिशबाजियों की धूम हुआ करती थी। इस पर्व को पूरी तरह हिंदू तौर-तरीकों से मनाया जाता था। भोज भी एकदम सात्विक होता था। दरअसल, दिवाली पर दिल्ली जश्न में डूब जाती। यमुना किनारे इक्टठा होकर लोग सेलिब्रेशन करते थे। चांदनी चौक के बगीचे में पार्टी आयोजित होती थी। यहां दुकानदार अपने सामानों की प्रदर्शनी भी लगाते थे। मेहमानों को कश्मीर का फल, शरबत और गंगा जल से बना खील परोसा जाता था। शाहजहां की यह विरासत उनके बेटे दारा शिकोह ने भी जीवित रखी। उनकी भी शाही सवारी दिवाली की रात निकलती थी।
मोहम्मद शाह की रंगीली दिवाली मोहम्मद शाह रंगीला को रोशन अख्तर भी कहा जाता है। रंगीला का दिवाली सेलिब्रेशन सबसे खास माना जाता है। औरंगजेब द्वारा दिवाली पर बैन के बाद रंगीला उतनी ही भव्यता से दिवाली मनाते। उनके शासनकाल में लाल किले को सजाया जाता था। अलग अलग तरह के लजीज पकवान बनते थे। यह पकवान सिर्फ महल के लिए नहीं बल्कि आम जनता में भी बांटे जाते थे। 16 रस्सियों के जरिए एक 40 फुट उंचा आकाशदीप भी जलाया जाता था। मुगल वंश के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर का दिवाली मनाने का अंदाज बिल्कुल जुदा था। दिवाली के दिन वो तराजू के एक पलड़े में खुद बैठते थे जबकि दूसरे पलड़ा सोने, चांदी के आभूषणों से भरा जाता था। तुलादान के बाद यह धन दौलत गरीबों को दान की जाती थी। बाद में लाल किले को रौशन किया जाता। कहार, खील-बताशे, खांड और मिट्टी के खिलौने घर घर बांटते थे।
गालिब की दिवाली का कहना ही क्या गालिब के कई किस्से पुरानी दिल्ली की गलियों में आज भी खूब मशहूर है। गालिब दरअसल उस शख्स का नाम था जो धर्म से ऊपर इंसान को समझता था। यही वजह थी कि दिवाली पर अपने माथे टीका लगवाने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं होता था। एक बार दिवाली पर वह अपने हिंदू दोस्त के यहां मौजूद थे तो पूजा के बाद सभी के टीका लगाया गया, लेकिन उन्हें छोड़ दिया गया। इस पर मिर्जा ने कहा कि उन्हें भी टीका लगा दिया जाए। उन्होंने दिवाली का प्रसाद लिया और अपने घर की तरफ चल दिए। रास्ते में उनके माथे पर लगे टीके और हाथ में मिठाई पर किसी ने ऐतराज जताया। कहा- मिर्जा दिवाली की मिठाई खाओगे। ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाओगे। जवाब में मिर्जा ने कहा यदि बर्फी हिंदू है तो क्या इमरती मुसलमान है।