कीचड़ भरे रास्तों से अंग्रेजी फौज नजफगढ पहुंची, लेकिन तभी हुआ यह
1857 की क्रांति: बागी सिपाहियों के कमांडर बख्त खां पर गलत आरोप लगा दिए गए। बख्त खां अपने सिपाहियों के साथ अंग्रेजों को झांसा देकर हमला करने निकला। अंग्रेज उसे रिज पर से ही दूरबीन के जरिए बाहर जाता देखते रहे।
चार्ल्स ग्रिफिथ्स ने लिखा है कि “वह घंटों लाहौरी और अजमेरी दरवाजों से बाहर निकलते हुए और हमारे पीछे की तरफ जाते नजर आते रहे।” जब बख्त खां की रवानगी की खबर जनरल विल्सन को मिली, तो वह जान गया कि किसको उसके मुकाबले के लिए भेजना है। वह जॉन निकल्सन को कैंप से बाहर भेजने के लिए उससे भी ज्यादा बेचैन था, जितने जफर बख्त खां से छुटकारा पाने को थे।
निकल्सन अपने सिपाहियों के साथ अगले दिन यानी 25 अगस्त को, सुबह चार बजे रवाना हुआ। उसके साथ उसके अपने सिपाहियों के अलावा तीन दस्ते घुड़सवारों के, फील्ड फोर्स के कुछ अंग्रेज पैदल सिपाही भी शामिल थे। जिनमें उसका छोटा भाई चार्ल्स निकल्सन और चार्ल्स ग्रिफिथ्स और एडवर्ड वाइबर्ट भी थे। कुल मिलाकर इस फौज में 2,500 आदमी थे, जिनमें से आधे ब्रिटिश थे। सबसे आगे थियो मैटकाफ था, जो दिल्ली के पीछे की गलियों से खूब वाकिफ था और फौज को रास्ता दिखाने का काम कर रहा था।
विल्सन का आदेश था कि पक्की सड़कों पर ही चलते रहना ताकि बरसात की दलदल में न फंसें। निकल्सन ने फौरन इस सलाह को नज़रअंदाज़ कर दिया और एक छोटा रास्ता लिया, जो थियो ने बताया था और जो पानी से भरे खेतों में से होकर जाता था और जहां घोड़ों को घुटने तक मिट्टी के अंदर से खींचना पड़ रहा था। इतनी बारिश और कीचड़ के बावजूद निकल्सन अपने लोगों को अपनी सामान्य तेजी से चलने का जोश दिलाता रहा। उसको हमेशा की तरह यकीन था कि अचानक हमला करना ही सब कुछ है। उसके सिपाहियों की कतार तेजी से मार्च करती हुई छह घंटे के बाद 10 बजे मंगली गांव में भीगे मौसम में नाश्ता करने को दो घंटे के लिए रुकी और फिर दोपहर को उसने उसी तेजी से बारिश में मार्च शुरू कर दिया।” सबको निर्देश थे कि बिल्कुल खामोशी से मार्च करें और ‘किसी भी तरह की आवाज़ न हो’।
शाम को चार बजे वह नजफगढ़ से दो मील दूर उत्तर में थे। थियो सबसे आगे किसी और छोटे रास्ते की तलाश में था जब उसे नीमच ब्रिगेड के कुछ अगले सिपाही नजर आए जिन्होंने फौरन हमला शुरू कर दिया। सवारों ने उसको तलवार मारनी चाही, लेकिन 11 मई की तरह ही थियो उनके वार से बचकर सुरक्षित अपनी सेना में वापस पहुंच गया।
ब्रिटिश फौज के बिल्कुल सामने नहर के दूसरी तरफ एक मुगल कारवांसराय थी, जहां नीमच फौजों के आगे वाले दस्ते नौ तोपों की सुरक्षा में आराम कर रहे थे और बाकी सिपाहियों के आ मिलने के इंतज़ार में थे। काफी पीछे पालम के पुल के पास बख़्त खां का बरेली दस्ता था, जहां बहुत से सिपाही सो रहे थे और कुछ हथियार उतारकर खेमा गाड़ रहे थे। ‘कई सिपाहियों ने अपना अस्लहा और पेटियां उतार दी थीं।
थके हुए ब्रिटिश सिपाही बारह घंटे से सड़क पर मार्च कर रहे थे और बीस मील मिट्टी और कीचड़ से गुजरकर और दो दलदलें पार करके आए थे। और उनको अपने गोले-बारूद वगैरा का थैला भी सिर पर रखकर चलना पड़ा था। लेकिन निकल्सन को उनको फौरन हमला करने का आदेश देने में कोई झिझक नहीं हुई ताकि वह दुश्मनों को बेखबरी में घेर सके।
बागी सिपाहियों की बंदूकें पुल पर निशाना लगाए हुए थीं। इसलिए निकल्सन ने अपने सिपाहियों को करीब के एक छोटे से नाले से पार करवाया और दूसरी तरफ पहुंचकर जल्दी से उनकी दो कतारें बनवायीं। वह खुद उनके सामने घोड़े पर घूमता रहा और उनसे चिल्ला-चिल्लाकर कहता रहा कि वह अपना हमला तब तक रोके रखें जब तक कि वह दुश्मन के मोर्चे के बिल्कुल करीब न पहुंच जाएं और फिर अपनी संगीनों से उन पर हमला करें। चार्ल्स ग्रिफिथ्स लिखता है:
“सिपाहियों ने निकल्सन के जवाब में खुशी से नारे बुलंद किए और उनकी फौजें आगे बढ़ती गई, सीधी और एक लाइन में जैसे वह परेड कर रहे हों। दुश्मनों ने हमला शुरू कर दिया और हमने भी बंदूकों से जवाब दिया। पैदल फौज झुकी हुई बंदूकों के साथ आगे बढ़ती गई, जब तक हम उनके करीब नहीं आ गए। फिर अंग्रेजों की लड़ाई का नारा सुनाई दिया और दोनों रेजिमेंटें हमला करने के लिए सराय की ओर भागीं। “मेरी रेजिमेंट से लेफ्टिनेंट गैबेट पहला सिपाही था, जो उनके मोर्चे के सामने पहुंचा। लेकिन एक बंदूक के सूराख के सामने से गुजरते हुए उसके सीने में एक तलवार की नोक ज़ोर से चुभी, जिससे वह जमीन पर गिर पड़ा और बाद में अंदर-अंदर खून के बहने की वजह से उसकी मौत हो गई। फिर भी हमारे सिपाही आगे बढ़ते गए और जो सामने आया उसको गिराते हुए उन्होंने चार तोपें कब्जे में कर लीं और जो बागी सामने आए उन्हें अपनी तलवारों से काट दिया और जो भाग रहे थे उन पर गोली चलाते रहे।
निकल्सन हमला करने वालों में सबसे आगे था। लेकिन सिपाहियों से सबसे पहले लड़ाई करने वालों में एडवर्ड वाइबर्ट था।
ग्रिफिथ्स लिखता है कि “हम उनके सराय में घुस गए और उनको वहां से भगा दिया और उनके खेमों, हथियारों और सब सामान पर कब्जा कर लिया। “हम उन पर हमला करने आगे बढ़ते गए। वह एक चौकोर अहाते के अंदर थे जिसकी दीवारों में हर तरफ छेद थे। हमने अपने जनरल के साथ एक जबर्दस्त नारा बुलंद किया और उनको तलवारों और भालों की नोक से बाहर निकाला-मैं बता नहीं सकता कि उस वक़्त मेरे में क्या जज़्बात थे। मैं आगे बढ़ रहा था और अपने प्यारे मां-बाप के बारे में सोच रहा और बदले की आग में जल रहा था। यह मेरी पहली लड़ाई थी और ईश्वर ने अपनी कृपा से फिर मेरी जान बचा ली। हालांकि मेरे आसपास के लोग गोली खाकर गिर रहे थे। एक गोली तलवार में लगी जिससे मेरे पीछे वाले आदमी की जान बच गई, लेकिन इन सब बातों हर वक़्त शुरू किया, तो दिल था मेरी जिक्र करने से अब क्या फायदा?
मेरे सामने सिर्फ अंधेरा और दुख है। मेरी आंखों के सामन हमारी प्यारी मां का चेहरा रहता है…” उस दिन वाइबर्ट अकेला निराशा में नहीं था। जब निकल्सन ने हमला बहुत से बागी सिपाही आगे बढ़ रहे थे और दलदल के तंग किनारे से गुजर रहे थे जहां से वह न दाएं जा सकते थे न बाएं, और आगे-पीछे हर तरफ सिपाही थे। दलदल के किनारे भी ज़बर्दस्त कीचड़ थी और कई लोग घुटनों तक उसमें धंसे थे। सईद मुबारक शाह लिखते हैं: “जब वह उस दलदल और कीचड़ में फंसे हुए थे, तो उन पर अंग्रेजों ने तोपें चलानी शुरू कर दीं। बारह तोपों से गोलियां अब नीमच ब्रिगेड पर बरसने लगीं। अब न वह आगे बढ़ सकते थे और न ही पीछे हट सकते थे।
इसलिए यह वहीं गिरते रहे। हालात इसलिए और खराब हो गए कि वह अंग्रेजों की तोपों को देख भी नहीं सकते थे , क्योंकि वह पेड़ों के पीछे छिपी हुई थीं। इतनी मुश्किलों के बावजूद बागी तोपची और पैदल फौज के सिपाही भी उन पर गोले बरसाते और गोलियां चलाते रहे। लेकिन जब सिपाही न आगे बढ़ सकते थे और न पीछे हट सकते थे तो उनके लिए कोई उम्मीद ही नहीं है, और बहादुर और बुजदिल किसी के लिए कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि वहीं खड़े-खड़े मारे जाएं। उस दिन नीमच ब्रिगेड के 470 घुड़सवार, पैदल और तोपची सिर्फ गोलियों की बौछार से मारे गए।