तबला वादक अहमद जान थिरकवा की जीवनी, biography of Ahmed jaan thirakwa

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

biography of Ahmed jaan thirakwa: सुयोग्य और प्रतिभाशाली तबला वादकों में थिरकवा खां उर्फ उस्ताद भारत अहमद जान थिरकवा का नाम सर्वोपरि है। उनके अद्वितीय तबला वादन के कारण उनकी प्रसिद्धि तबला के जादूगर के रूप में हुई। उनका जन्म सन् १८९२ के लगभग मुरादाबाद में हुआ पटियाला के विख्यात विचित्र वीणा वादक अब्दुल अजीत खां ने तबले पर उनकी चपलतापूर्वक उंगलियों के थिरकने के अद्भुत रूप को देखकर ही ‘थिरकवा’ की उपाधि दी और यही नाम जीवनपर्यंत अहमद जान के साथ जुड़ गया।

संगीत शिक्षा

उनके नाना बाबा कलंदर बख्श तथा इनके भाई इलाही बख्श, बोली बख्श तथा करीम बख्श सभी मुरादाबाद के प्रसिद्ध तबला वादकों में से थे। चाचा शेर शाँ, मामा फैयाज खाँ, बसवा खाँ और फजली खाँ भी सुप्रसिद्ध तबला वादक थे।

इस प्रकार पैतृक एवं मातृक वंश में एक से बढ़कर एक गुणी तबला वादक थे। किंतु तबले की विधिवत् शिक्षा उन्हें मेरठ के उस्ताद मुनीर खाँ से प्राप्त करने का प्रबंध किया गया। मुनीर खां ताल विद्या के प्रकांड विद्वान् तो थे ही, साथ ही एक नामी तबला वादक के साथ अद्वितीय शिक्षक भी थे।

वे लगभग तीस वर्ष से अधिक समय तक अपने गुरु से तबले की शिक्षा प्राप्त करते रहे। मुनीर खां उन्हें एक सुयोग्य शिष्य की हैसियत से तबला वादन के सूक्ष्म तकनीकों के साथ संगत करने के गूढ़ तत्त्व एवं मंत्रों से अवगत कराया। अपने गुरु से उन्होंने सहस्रों बोल और परनें सीखीं।

दिल्ली के बाज से मिली प्रसिद्धी

वह लखनऊ, मेरठ, अजराड़ा तथा फर्रुखाबाद आदि तबले के समस्त घराने की बाज को जानते थे,  किंतु उनकी प्रसिद्धि दिल्ली और फर्रुखाबाद के बाज बजाने में थी। उत्तम वादन के साथ अपने मुख से उनके बोलों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना उनकी विशेषता थी।

वे कठिन से कठिन तालों को सुगमतापूर्वक बजाकर वह श्रोताओं को विस्मय में डाल देते थे। उनकी प्रतिभा गंभीर, अथक एवं भावुक गायन के साथ संगत करने में अद्वितीय थी। उन्होंने बड़े-बड़े संगीतज्ञों के साथ संगत की थी उस्ताद फैयाज खां को उनकी तबला संगत बहुत पसंद थी।

वह कहा करते थे, “यदि कोई मुझसे संगतकार के लिए पूछे तो मेरी सबसे पहली पसंद थिरकवा होंगे।”

उस्ताद फैयाज खां के निधन पर थिरकवा साहब ने कहा, “गवैया तो उठ गया, अब मैं किसके साथ बजाऊं ?” उनकी तबला संगत, गायन या वादन का हस्तक्षेप किए बिना उनकी कलात्मकता को और निखारती थी।

उन्होंने अपने उस्ताद से सीखी चीज को खूब माँजने के साथ ही तबले के घराने की समग्र खूबियों को अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था। उन्होंने अनेक शिष्यों को भी तबला वादन की शिक्षा दी। उनमें स्व. हबीबुद्दीन, प्रेम वल्लभ, गुलाम मोहम्मद, निखिल घोष, रोजवेल लायन पुत्र नवी जान और महमूद जान आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

जिंदादिल इंसान

तबला वादन के क्षेत्र में इतनी प्रसिद्धि के बावजूद उनको तनिक भी घमंड नहीं था। जो उनसे एक बार भी मिल लेता, वह बार-बार मिलने को लालायित रहता था। उन्हें तबला वादकों में जितनी प्रतिष्ठा मिली वह वास्तव में एक मिसाल है। वह गाने के भी शौकीन थे। उन्हें उस्ताद फैयाज खाँ की बहुत सी बंदिशें याद थीं, जिसे यदा- कदा उनके मुख से सुनने को मिलता था।

संगीत की रचनाओं के साथ उर्दू के बहुत से शेर भी याद थे, जिन्हें खास अवसरों पर महफिलों में सुनाया करते थे वह मिलनसार, हँसानेवाले और एक जिंदादिल इनसान थे। वह कुछ वर्षों तक रामपुर दरवार में भी रहे। वहाँ से मुक्ति मिलने के बाद भातखंडे संगीत कॉलेज, लखनऊ में भी कुछ वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया।

सम्मान एवं पुरस्कार

सन् १९५३-५४ में राष्ट्रपति पुरस्कार तथा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार के साथ १९७० में भारत सरकार की ओर से उन्हें ‘पद्मभूषण’ के अलंकरण से विभूषित किया गया। तबले के इस जादूगर का निधन लखनऊ में १३ जनवरी १९७६ को हो गया।

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