Alauddin Khan

संघर्षों में बीती जिंदगी, कभी भोजन के लिए भी हुए मोहताज

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली

Alauddin Khan biography: आधुनिक युग के तंत्र वाद्य के वादकों में उस्ताद अलाउद्दीन खां साहेब का नाम एक विशिष्ट स्थान रखता है। उनका जन्म अक्तूबर १८८१ में त्रिपुरा जिले के शिवपुर स्थान पर हुआ था। पिता का नाम साधु खां था, जो कासिम अली खां सितारिए के शिष्य थे।

उनके अंदर बचपन से ही संगीत का संस्कार विद्यमान था। उन्होंने बड़ी कठिन परिस्थितियों में संगीत की शिक्षा प्राप्त की। संगीत सीखने की जबरदस्त लगन के कारण ही वे सात वर्ष की अल्पायु में कलकत्ता चले गए और वहां श्री गोपालचंद्र भट्टाचार्य के शिष्य बने जो महाराज जितेंद्र मोहन ठाकुर के गुरु थे। वहां भोजनादि की व्यवस्था ठीक न होने के कारण वे भिखारियों की जमात में रहकर भोजन कर लेते और गंगाजल पीकर जीवन व्यतीत करते।

Alauddin Khan’s musical journey

सात वर्ष तक लगातार अपने गुरु की आज्ञा से स्वर- साधना में तल्लीन रहे, साथ-साथ वहीं नंदा बाबू से पखावज भी सीखते रहे। दुर्भाग्यवश सात वर्ष के बाद ही श्री भट्टाचार्यजी का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद स्वामी विवेकानंद के भाई श्री हब्बीदत्तजी के संपर्क में आए और उनसे वॉयलिन, शहनाई, बांसुरी तथा क्लारेनेट बजाना सीखा।

इसी समय अलाउद्दीन खां ने दमदम के अहमद अली साहब का सरोद सुना और इस वाद्य से प्रभावित होकर सरोद की शिक्षा लेने उनके संपर्क में आए। यहां पर सरोद सीखते रहे, प्रतिदान में एक सेवक की तरह उनके घर का सारा काम करते रहे।

Alauddin Khan’s music education and training

अहमद अली की आज्ञा से रामपुर के वजीर खां से संगीत की शिक्षा प्राप्त करने चले आए, जहां उनके रहने और भोजन करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। कभी मसजिद में सो जाते या कोई खाना दे देता तो खा लेते, अन्यथा कई दिनों तक भूखे ही सो जाते थे।

एक दिन उन्होंने अपनी इस स्थिति से तंग आकर नवाब साहब की बग्घी रोक ली, जिस पर सवार होकर नवाब साहब संध्याकाल भ्रमण को जा रहे थे। नवाब साहेब को उन्होंने अपनी पूर्ण दुःखद कहानी सुना दी। दूसरे दिन नवाब साहब की आज्ञानुसार उनके दरबार में पहुंचे। नवाब साहब ने रहने और भोजन की व्यवस्था करवा दी, साथ ही वजीर खां से संगीत की शिक्षा देने को कह दिया।

वजीर खां के यहां जब उन्होंने जाना प्रारंभ किया तब उन्होंने अपने घर में प्रवेश नहीं करने दिया। परिणामस्वरूप वे बाहर दरवाजे पर ही कुछ देर खड़े रहते और अपने स्थान को लौट जाते। लगातार तीन माह तक यह क्रम चलता रहा। एक दिन वजीर खां ने उन्हें बुलाया और कहा, “मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम्हारे अंदर संगीत सीखने की सच्ची लगन है या नहीं; परंतु तुम परीक्षा में पास हो गए। अब मैं तुम्हें संगीत की शिक्षा दूंगा।”

Contributions of Alauddin Khan to music

इसके बाद उन्होंने वजीर खां से रबाब, सुर सिंगार सरोद तथा ध्रुपद आदि की शिक्षा तैंतीस वर्षों तक प्राप्त की। इसके साथ ही प्रसिद्ध वीणा वादक मोहम्मद खां साहब से होरी व ध्रुपद की शिक्षा ग्रहण करते रहे। इसी अवधि में रामपुर के नवाब विदेश से लौटे।

उन्हेंने एक वाद्यवृंद (ऑरकेस्ट्रा) तैयार करवाया, जिसमें उन्हें वॉयलिन बजाने का अवसर प्राप्त हुआ। इससे उन्हें ख्याति मिलने लगी। रामपुर दरबार में सुविख्यात व जाने-माने कलाकारों को आमंत्रित किया जाने लगा, इसके साथ उन्हें संगत करने का अधिक-से-अधिक अवसर प्राप्त होने लगा। एक दिन जब गुरु ने उन्हें पूर्ण घोषित कर दिया और भ्रमण करने की आज्ञा दे दी तो वह कलकत्ता को प्रस्थान कर गए और वहाँ उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। कालांतर में उनको मैहर रियासत में नौकरी मिल गई। इसी कालावधि में उन्होंने विख्यात नर्तक उदयशंकरजी की पार्टी में सम्मिलित होकर इटली, बेल्जियम, फ्रांस तथा अमेरिका आदि देशों का भ्रमण किया। उनकी प्रसिद्धि गुणी कलाकार के रूप में तो हुई ही, लेकिन इससे अधिक ख्याति एक संगीत गुरु के रूप में हुई।

उन्होंने कभी किसी को निराश नहीं किया। जो भी उनसे सीखने आता, उसे आत्मीयता से सिखाते। संगीत शिक्षण में अपनी संतान और शिष्यों में कभी भेदभाव नहीं रखा। सभी के लिए अनुशासन एक समान था, उतना ही कठोर व नियमबद्ध सिखाते समय यदि शिष्यों से गलती हो जाती तो वे उन्हें थप्पड़ लगाने से भी नहीं हिचकते। यद्यपि वे वज्र के समान कठोर थे, तो फूल के समान कोमल भी थे। कड़े अनुशासन की सहनशीलता जिन शिष्यों में रहो, वे आज भी संगीत जगत् में अपने-अपने क्षेत्रों में विख्यात हैं। कौन सा ऐसा उस्ताद होगा, जिसकी शिष्य परंपरा इतनी समृद्ध होगी और वह भी अलग-अलग संगीत के वाद्य क्षेत्र एवं विद्याओं में उनकी प्रसिद्धि न सिर्फ सरोद में थी बल्कि इसराज, वॉयलिन, सितार, सुरबहार, तबला और पखावज के विशिष्ट वादन में भी थी। अठारह साजों पर उनका समान अधिकार था। शिष्यों में प्रसिद्ध हैं- पन्नालाल घोष (बाँसुरी), अली अकबर खाँ, तिमिर बरन, शरणरानी, ज्योतिन भट्टाचार्य समो (सरोद), जमाता रविशंकर एवं निखिल बनर्जी (सितार), वी. जी. जोग (वॉयलिन), बेटी अन्नपूर्णा (सुरबहार) तथा बिस्मिल्लाह खाँ (शहनाई)।

उन्हें सेनिया घराने की शैली का वादक माना जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि सभी वाद्यों के वादन में उनकी अपनी विशिष्ट शैली थी। उन्होंने कुछ नवीन रागों की रचना भी की, जिसमें प्रमुख हैं-‘प्रभातकली’, ‘हेमविहारा’, ‘सौभाग्यवती’ और ‘मदन मंजरी’। वे स्वयं में एक संगीत घराना थे। वे किसी विशेष संगीत घराने की सीमा में बंधे नहीं थे।

ऐसी मान्यता है कि वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदुस्तानी वाद्य तथा कंठ संगीत में स्वरलिपि पद्धति का समावेश किया। उन्होंने ही हिंदुस्तानी संगीत में ऑरकेस्ट्रा का चलन प्रारंभ किया। उनके द्वारा संचालित ‘मैहर बैंड’ को अपने जमाने में काफी प्रसिद्धि मिली।

वर्तमान युग में बाबा ( उस्ताद अलाउद्दीन खां) जैसा चरित्रवान् संगीतज्ञ भी दुर्लभ ही मिलेगा। सरलता, धार्मिकता, मिताहारिता के साथ वे अत्यंत सात्त्विक प्रवृत्ति के थे। इसलाम धर्मावलंबी होने और रोज पांचों वक्त नमाज अदा करने के बावजूद मुख से ‘मां-मां’ की रट लगाते। नियमित रूप से मां शारदा के मंदिर में जाते तथा शिव व काली की प्रार्थना करते।

उनके घर में सरस्वती, भगवान् राम, कृष्ण, हनुमान, रामकृष्ण परमहंस एवं योगी अरविंद के चित्र टंगे हुए रहते थे। उन्हें हिंदू देवी-देवताओं में भी उतनी ही श्रद्धा थी जितनी इसलामिक धर्म में इस प्रकार बाबा भारतीय संस्कृति के आदर्श, तपस्वी के समान उदारवादी, निर-अहंकारी, निःस्पृह और निर्लोभी महापुरुष थे। उनकी मृत्यु ६ सितंबर, १९७२ को हुई।

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