-समय के साथ बदलता रहा है चांदनी चौक का नाम

चांदनी चौक की संकरी गलियों में दिल्ली बसती है। यहां स्वाद के शौकीनों के लिए जायके का खजाना मौजूद है तो वहीं दिल्ली की कहानी सुनाती पुरानी हवेलियां है। एक ही सड़क पर मस्जिद की अजान, मंदिर में प्रार्थना और गुरूद्वारे की अरदास धार्मिक सौहार्द की मिसाल है। 1659 में इस बाजार को मुगलों ने बनवाया था। किसी जमाने में इस बाजार के बीच से नहर बहा करती थी। पूरा इलाका चौड़ा और खुला सा था। फौव्वारा चौक पर मानों पूरी दिल्ली बसती थी। नहर किनारे बड़े पौधों की छांव में फल विक्रेता, जायका विक्रेताओं का हुजूम लोगों को भाता था। मुगल रानियां भी शापिंग करने चांदनी चौक ही आती थी। शाहजहां की बेटी जहांआरा बेगम ने वर्तमान गांधी पार्क के पास एक खूबसूरत सराय भी बनाई थी। जहां कारोबारी समेत अन्य आराम फरमाया करते थे। असल चांदनी चौक भले ही आगरा किले में था लेकिन अपनी राजधानी स्थानांतरित करने के बाद शाहजहांनाबाद में फतेहपुरी मस्जिद से लाल किले के सामने स्थित लाल मंदिर तक पूरा मार्ग चांदनी चौक कहलाने लगा। हालांकि असल चांदनी चौक टाउन हाल के सामने ही था जहां कभी घंटाघर था। चौक का नाम देश-काल-घटनाओं के साथ साथ लोक जनमानस में बदलता रहा। कोतवाली का रास्ता से लेकर खूनी चौक, रंगीला चौक और रोहिल्ला चौक जैसे नामों से शुरू हुआ नाम का सफर क्रांति चौक तक पहुंचा था। इस आर्टिकल में हम चांदनी चौक के इन्हीं नामों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखेंगे।

कोतवाली का रास्ता

इतिहासकार आरवी स्मिथ कहते हैं कि बहादुरशाह का च्येष्ठ पुत्र जहांदारशाह 1661 में पैदा हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात सत्ता के लिये इसे अपने भाइयों से संघर्ष करना पड़ा। मीर बख्शी जुल्फिकार खां ने इसे सहायता दी। इसका एक भाई अजीम-अल-शान लाहौर के निकट युद्ध में मारा गया। शेष दो भाइयों- जहानशाह और रफी-अल-शान को पदच्युतकर सम्राट् बनने में यह सफल हुआ। यह काफी रंगीन मिजाजी शासक था। इसके शासन काल में चांदनी चौक जन सामान्य में कोतवाली का रास्ता नाम से प्रसिद्ध था। दरअसल, जहांदारशाह रंगीला की दलकश पत्नी लाल कंवर इसी रास्ते से लाल किले आती थी।

रंगीला चौक

मुगलिया सल्तनत के बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला का असल नाम तो मुहम्मद शाह ही था पर इनकी इश्क मिजाजी और कला के प्रेम ने मुहम्मद शाह को रंगीला बादशाह की उपाधि दिला दी थी। दरअसल औरंगजेब की मौत के बाद दिल्ली के हालात बहुत खराब हो चुके थे। जो कलाकार, चित्रकार या संगीतकार पहले राजमहल के साये में रहते थे, उनकी हालत औरंगजेब ने पहले ही खराब कर डाली थी। औरंगजेब की मौत के बाद जब मुहम्मद शाह दिल्ली की गद्दी पर बैठे तो उन्होंने औरंगजेब के राज संचालन से एकदम उलट कार्य किया। मुहम्मद शाह ने सभी चित्रकारों, संगीतकारों को फिर से अपने दरबार में पनाह दी। चूंकि चांदनी चौक से होकर किले में प्रवेश किया जाता था लिहाजा चौक रंगीला चौक के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

खूनी चौक

मुहम्मद शाह के शासनकाल में फारस के नादिरशाह ने 1737-38 के बीच भारत पर आक्रमण किया। 20 मार्च 1738 को दिल्ली में प्रवेश कर नादिरशाह ने अपने चंद सैनिकों की मृत्यु के बदले भयंकर कत्लेआम का आदेश दिया, जिसमें 20000 के करीब लोगों का कत्ल कर दिया गया। बकौल आरवी स्मिथ नादिरशाह दिल्ली में कुल 58 दिनों तक रहा और सुनहरी मस्जिद में रहते हुए लगातार हत्या और लूटपाट करवाया। नादिरशाह के प्रवास के दौरान चांदनी चौक खूनी चौक के नाम से ही जाना जाता था।

चूड़ीवाली का अड्डा

बेगम समरू का असली नाम फरजामा जेबुनिसा था, वो कश्मीरी थी। समरू के बारे में इतिहासकार बताते हैं कि वो नर्तकी थी। 14 साल की फरजाना पर 45 साल के एक फिरंगी फौजी की नजर पड़ी। सोम्बर की मौत के बाद फरजाना सरधना के बेगम समरू कहलाने लगी। बेगम समरू का चांदनी चौक स्थित मकान बाद में बैंक में तब्दील होते हुए थोक बाजार में बदला। चूंकि जब वो रहती थी कि वो खुद भी चुड़ियां पहनती थी इसलिए उनके नाम से चौक चूड़ीवाली का अड्डा नाम से प्रसिद्ध था।

रोहिल्ला चौक

रोहिल्ला चीफ गुलाम कादिर ने जब दिल्ली पर धावा बोला तो उसने शाह आलम को बंधक बना अंधा कर दिया। उसके सैनिकों ने चांदनी चौक में जमकर तबाही मचाई। दुकानों को जमकर लूटा गया। हालत यह हो गई थी कि लोग रोहिल्ला चौक कहकर अपने जानने वालों, रिश्तेदारों को दूर रहने की हिदायत देते थे। यह 1788 का दौर था।

जंगे आजादी में मुर्दो का चौक

1857 के विद्रोह के दौरान चांदनी चौक प्रमुख केंद्र था। बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में सिपाही विद्रोह का बिगुल बजा रहे थे। जब ब्रितानिया हुकूमत के जॉन कंपनी ने दोबारा दिल्ली पर कब्जा किया तो बड़ी संख्या में विद्रोही सिपाहियों व अन्य का नरसंहार किया गया। लाहौरी गेट से चांदनी चौक तक लाशों का ढेर बिछा था। तभी तो मुर्दो का चौक नाम से पूरा इलाका जाना जाता था। जबकि अंग्रेजों में यह चौक जार्ज बेरेसफोर्ड रोड के नाम से मशहूर था क्यों कि 11 मई 1857 को लंदन और दिल्ली बैंक के मैनेजर बेरेसफोर्ड को चौक पर मारा गया था।

कभी क्वीन विक्टोरिया चौक भी कहा गया

सन 1887 में जेम्स स्किनर ने टाउन हाल के ठीक सामने क्वीन विक्टोरिया का स्टैच्यू लगाया था। दरअसल, वह गोल्डन जुबली सेलिब्रेट कर रही थी। उस दौरान यह चौक विक्टोरिया स्कवायर चौक के नाम से जाना जाता था। जबकि आजादी के आंदोलनों के दौरान चौक क्रांति चौक के नाम से भी प्रसिद्ध था। यही नहीं आजादी के बाद इसका नाम आजाद चौक रखने की मांग भी बड़े जोर शोर से उठाई गई थी। लेकिन कहते हैं कि प्रथम प्रधानमंत्री ने इस मांग को नामंजूर कर दिया था।

गुरू तेग बहादुर चौक नाम रखने की भी उठी थी मांग

चांदनी चौक मुख्य मार्ग पर ही गुरूद्वारा शीशगंज स्थित है। सिखों के नौवें गुरू का इसी गुरूद्वारे में औरंगजेब ने सिर काट दिया था। औरंगजेब चाहता था कि सिख गुरु इस्लाम स्वीकार कर लें लेकिन गुरु तेग बहादुर ने इससे इनकार कर दिया था। गुरु तेग बहादुर के त्याग और बलिदान के लिए उन्हें हिंद दी चादर कहा जाता है। मुगल बादशाह ने जिस जगह पर गुरु तेग बहादुर का सिर कटवाया था दिल्ली में उसी जगह पर आज शीशगंज गुरुद्वारा स्थित है। चौक का नाम गुरु तेग बहादुर के नाम पर भी रखने की मांग काफी जोरशोर से उठाई गई थी। दीगर है कि काफी समय तक फौव्वारा चौक के उत्तर दिशा का मार्ग भाई मति दास चौक के नाम से जाना जाता रहा। इसी कड़ी में यह भी जानना जरुरी होगा कि क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर को भारत सम्मान से सम्मानित होने के बाद सन 2012 में चांदनी चौक के सड़क का नाम सचिन तेंदुलकर रखने का प्रस्ताव भी पेश हुआ था। एकीकृत नगर निगम में यह प्रस्ताव पेश किया गया था। हालांकि हंगामे, विरोध के चलते ऐसा करना मुनासिब नहीं हुआ।

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