सूरज की तपिश और उमस झेलती दिल्ली की सरजमीं पर बारिश की बूंदे राहत लेकर आती। आसमान में उमड़ते घुमड़ते काले घने बादलों को देखते ही मयूर पंख फैला झूम उठते। बारिश से धरा जहां तृप्त होती है वहीं मानुष मयूर सा खिलखिलाकर हंस पड़ता है। दिल खुशी से झूम उठता है। मिट्टी की मीठी सौंधी खुशबू जमीं से लगाव बढ़ाती है। शायद यही कारण है कि दिल्ली में बारिश मौसमी प्रक्रिया से कहीं अधिक बढ़कर एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। इसका इंतजार ना केवल आज के दौर में बेसब्री से किया जाता है बल्कि मुगल काल में खुद बादशाह भी मानसून का इंतजार एवं आनंद उठाते थे। फूल वालों की सैर के बहाने बारिश दिल्ली की सांस्कृतिक गतिविधियों का भी केंद्र बनी। हरियाली की चादर ओढ़े धरती जब हवाओं के झोंकों संग झूमती तो दिल्लीवाले हर्षित हो जाते हैं। मुगल, मानसून और दिल्ली के बहाने दिल्ली में बारिश से जुड़े खुशनुमा पलों एवं यादों को संजोने की कोशिश करेंगे।

बारिश का इंतजार

मुगल बादशाह बाबर, हुमायूं, अकबर या फिर शाहजहां ही नहीं बहादुर शाह जफर तक बारिश का इंतजार करते थे। जहांदार शाह और बारिश के कई किस्से काफी मशहूर हैं। उनके बाद आए फारूक सियार, जिन्होंने आगरा में दिल्ली गेट बनाने के लिए सावन का महीना ही चुना था। मोहम्मद शाह रंगीला की कृति बरसात की रातें भी सावन के लिए उनकी चाहत का सबूत है। शाह आलम के तौर पर शहजादा अली गौहर जब युवा थे को तैराकी पसंद करते, वैसे ही अकबर शाह और बहादुर शाह जफर भी तैराकी के शौकीन थे। इतिहासकार कहते हैं कि मुगल शासक ऐसे परिवेश से आए थे जहां बारिश बहुत ज्यादा नहीं होती थी। लिहाजा, उनके लिए हिंदुस्तान की बारिश एक खुशनुमा अनुभव था।

बारिश में उस्ताद शाहजहां

इतिहासकार कहते हैं कि शाहजहां तो बारिश में उस्ताद बन जाते थे। दरअसल, बारिश के मौसम में यमुना में तैराकी प्रतियोगिता का आयोजन होता था। कई बार शाहजहां खुद इस प्रतियोगिता में शामिल होते थे। वो युवाओं को तैराकी भी सिखाते थे। बारिश के बाद जब दिल्ली में यमुना की लहरें अठखेलियां करती थी तो तैराकी मेले के जरिए युवा अपना दमखम दिखाने को तैयार हो जाते थे। इसकी तैयारी एक महीने पहले से शुरू कर दी जाती थी। अलग अलग समूह में युवा यमुना किनारे पहुंचते थे। हर समूह का मुखिया खलीफा होता था। समूह के झंडे अलग होते थे। प्रत्येक समूह ढोल नगाड़ों संग घाट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता था। जहांगीर यमुना में तैरने के लिए उतरते तो उनके साथ छह अन्य तैराक होते थे। दिल्ली में बारिश यानी सावन के तुरंत बाद महरौली में फूल वाली की सैर की परंपरा तो अभी भी जारी है। आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर बरसात का मौसम महरौली में बिताना पसंद करते थे, सावन में यहां हर पेड़ पर झूले पड़ जाते और मल्हार की स्वर लहरियां सावन का समां बांधती थी।

दिल्ली की गलियों में गूंजता लोकगीत

बारिश के दिनों में पहले दिल्ली की गलियों में बच्चे कपड़े उतार गलियों में गीत गाते हुए दौड़ते थे। जामा मस्जिद में बच्चों की टोली बेसब्री से बारिश का इंतजार करती थी। बच्चे–आंधी गई रेत में, पानी गया खेत में,अल्ला मियां पानी बरसा दो गाते थे। कई तो ऐसे भी लोग थे जो मुल्तानी मिट्टी, साबुन लेकर चलते थे। वहीं आजादी के बाद बारिश का मौसम में इंडिया गेट की खूबसूरती में चार चांद लग जाता था। इंडिया गेट के पास वाले घास के मैदानों में नंगे धड़ बच्चे धमाचौकड़ी मचाते नजर आने लगते थे। कुछ जांबाज तैराकों के तेवर दिखलाते हौजनुमा उथले तालाबों में नहाने का लुत्फ लेते तो उनके कुछ साथी जामुन के पेड़ों के नीचे बिछी चादरों से रसीली फल लूटने की ज्यादातर कामयाब हरकतें करते।

बैलगाड़ी पर बैठकर जाते थे महरौली

शाहजहां के समय महरौली में एक महीने तक मेला लगता था। दुकानदार पूरे साल इस मेले का इंतजार करते थे। खाने समेत घर के जरूरी सामान की खरीदारी के लिए महिलाएं पोटली में खाना बांध परिवार के सदस्यों संग जाती थी। यह दृश्य काफी मनोरम होता था। महिलाओं की अलग अलग टोली गाना गाते हुए जाती थी और खरीदारी करने के बाद एक से दो दिन बाद लौटती थी। कई परिवार तो तंबू भी ले जाते थे ताकि कुछ दिन गुजार सके। प्रसिद्ध इतिहासकार सोहेल हाशमी कहते हैं कि पुराने जमाने में मानसून कल्चर का हिस्सा था। बारिश की बूंदों से उठती मिट्टी से सौंधी सौंधी खुशबू का कहना ही क्या होता था। बैलगाड़ी में बैठकर लोग महरौली स्थित आम के बागान जाते थे, जहां आज वर्तमान छतरपुर मेट्रो स्टेशन है। ये आम के बागान बहादुर शाह जफर के दादा ने लगवाए थे। यहां दो गांव थे अमराइयां और अंधेरिया। घर से खाना साथ लाए परिवार यहां पूरा दिन गुजारते थे। अमराइयां गांव का अब अस्तित्व नहीं है।

हाशमी कहते हैं कि सन 1960 के आसपास डीडीए शहर में जमीन का अधिकार ग्रहण करने लगा। इन गांवों में फार्म हाउस बन गए। जो पहले आम के बाग थे वो पूरी तरह खत्म हो गए। इन बाग और बारिश के साथ जो परंपराएं थी वो 1970 तक खत्म होती चलीं गई। बाद के समय में लोदी गार्डन, इंडिया गेट, पुराना किला समेत अन्य एतिहासिक स्थल बारिश के मौसम में पिकनिक स्पॉट के रूप में उभरे। कुतुब मीनार, हौज खास विलेज, यमुना बैंक नीयर ओखला विलेज, फिरोज शाह कोटला में आज भी बारिश के बाद लोगों की भीड़ उमड़ती है। हौजखास के डीयर पार्क में कभी झोपड़ियां होती थी। जिनमें घुमने आए लोग बारिश का आनंद उठाते हुए खाना तक बनाते थे। झोपड़ी में खाना खाते एवं बारिश का लुत्फ लेते थे। बाद में डीडीए ने इन झोपड़ियों को म्यूजियम में तब्दील कर दिया। यही नहीं दिल्ली बोट क्लब ओखला में दौड़ का भी आयोजन करता था।

मृदुला गर्ग कहती हैं कि हम बंगाली मार्केट में रहते थे। बारिश के दिनों में चांदनी चौक जाकर बेडमी पूरी, गुलाब जामुन और जलेबी खाना हमारी आदत में शुमार था। बारिश में कनॉट प्लेस में इंडियन कॉफी हाउस में गर्म-गर्म कॉफी पीने का भी शौक लोगों को था।

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