जब पेट में केचुंए से परेशान अफगानिस्तान का शहजादा भागा आया दिल्ली
चिकित्सा के क्षेत्र में आज दिल्ली का कोई सानी नहीं था लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब यहां अस्पताल कम थे। दिल्लीवाले घरेलू नुस्खे, घरेलू इलाज पर अधिक भरोसा करते थे। हर रोज सवेरे दांतों को कोयले और बादाम के छिलकों के बारीक पिसे हुए मंजन से साफ करते। आंखों में सुरमा और काजल बड़े भी डालते और छोटे भी। बुजुगों को बहुत से दोहे भी याद थे जिनको सुनाने का मतलब यह होता था कि घरवालों के लिए कौन-कौन सी चीजें फायदेमंद हैं और कौन-सी नुकसानदेह। कुछ खास दोहे ये हैं-
हर्र बहेड़ा आंवला तीनों नोन तपंग
दांत बजर सों होत हैं माजूफल के संग
हरे बहेड़ा आंवला चौथी डाल गिलोए
पंचम जीरा डाल के निर्मल काया होए
दूध बियारी जो करे नित उठ हड़डें खाए
मोती दातुन जो करे तो घर वैद्य न जाए
क्वॉर करेला, चेत गुड़, भादों मूली खाए
पैसा खरचे गांठ का रोग बसाहन जाए
सावन साग न भादों दही
क्वार करेला न कातक मही।।
पुराने जमाने में खसरा का जोर भी रहता था। लोग कहते थे कि माता निकल आई है। रक्षा के लिए शीतला माता के मंदिरों में प्रार्थना की जाती, मियां के मेले लगते। एक मेला जयसिंहपुरा में और दूसरा बुद्धो माता का मेला महलदारबाग़ के पास लगता था। माता के मेले पर औरतें छोटे मूँझ के पंखे, फल और बेर चढ़ाती थीं। घर में बच्चे के सिरहाने नीम की टहनी रख दी जाती थी और दूसरे बच्चों को बीमार बच्चे के क़रीब नहीं आने दिया जाता था। उस ज़माने में डॉक्टर सिर्फ दो थे-डॉक्टर हेमचंद्र सेन और डॉक्टर सान्याल।
डॉ. हेमचन्द्र सेन हर रोज सवेरे मुहल्लों में घूमकर अपने खास खास मरीजों का हाल पूछते थे, अपनी डायरी लिख लेते थे और उनको सलाह देकर वापस फ़ौवारे अपनी डिस्पेंसरी पर चले जाते थे। हकीम और वैद्य काफ़ी तादाद में थे। यह दरअसल खानदानी पेशा था और पुराने आजमाये हुए नुस्खों और हकीम या वैद्य के रोग निदान की योग्यता पर चलता था। हकीमों के घरों और मकानों पर मरीज़ बड़ी तादाद में आते थे। उनमें ग़रीब और अमीर सब शामिल थे। कई हकीम तो खुद भी जर्राह थे वरना अनुभवी जर्राह भी काफ़ी तादाद में थे।
दिल्ली के हकीमों की शोहरत दूर नजदीक तक फैल चुकी थी। हिन्दुस्तान भर से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी रोगी अपने इलाज के लिए उनके पास आते थे। दिल्ली में शरीफखानियों का खानदान बड़ा मशहूर था। उसी खानदान के महमूद खां साहब बहुत नामी हकीम थे। बल्लीमारान में आपके मकान पर मरीजों की भीड़ लगी रहती थी। औरतों की डोलियों का तांता लगा रहता था। हकीम साहब नब्ज़ देखकर नुस्खा लिख देते। एक बार अफगानिस्तान का शहजादा उनके पास इलाज के लिए आया। उसके पेटे में केंचुआ इतना बढ़ गया था कि उसका जिस्म घुल-घुलकर कांटा हो गया था। हकीम साहब शहजादे को कुतब साहब की अमरियों में ले गए, वहां झूले में बिठाकर उसे बड़े बड़े झोटे दिलवाए। हकीम साहब उसे जुल्लाब पहले ही दे चुके थे। शहजादे को दस्त शुरू हो गए और जितने कीड़े पेट में थे सब निकल गए। शहजादे की न सिर्फ़ बीमारी ही ठीक हो गई, बल्कि उसकी सेहत में इतना सुधार हुआ कि वह हट्टा-कट्टा होकर अफगानिस्तान लौटा।