अर्जुन ने की थी हनुमान प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा
हनुमान जी का मंदिर इसकी बाबत निगमबोध घाट के विवरण में लिखा जा चुका है। निगमबोध तो पांडवों से भी पुरातन काल का स्थान था और बहुत पवित्र माना जाता था। इस बात को पांडव भी जानते होंगे। संभव है कि निगमबोध घाट पर वह धारा यमुना में जाकर मिलती हो जो मुस्लिम काल तक पहाड़ी में से आकर एक ओर बारहपुले पर यमुना में मिलती रही और दूसरी ओर तुर्कमान दरवाजे से होकर कोतवाली के स्थान तक जाती रही (जैसा कि नक्शे में दिखाया गया है)। निगमबोध पर जो हनुमान जी का मंदिर है, संभव है कि यहां अर्जुन ने हनुमान जी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए कोई कीर्ति स्तंभ उनके नाम से स्थापित किया हो और बाद में यहां मूर्ति स्थापित कर दी गई हो।
नीली छतरी
नीली छतरी यमुना के किनारे सलीमगढ़ के उत्तरी द्वार के सामने शहर से यमुना के पुल को जाते समय सड़क के बाएं हाथ नीली छतरी नाम का एक छोटा-सा मंदिर है। कहते हैं, युधिष्ठिर महाराज ने, जब वह सम्राट घोषित हुए तो राजसूय यज्ञ की स्मृति में यमुना के किनारे एक छतरी बनवाई थी, जो यहां कहीं रही होगी। उसी समय को स्मृति चली आती है। वर्तमान मंदिर सड़क से बिल्कुल लगा हुआ है। सड़क की पटरी के साथ बाएं हाथ पर चारों ओर से ढलवां छतरी बनी हुई है, जिस पर नीले, पीले और हरे रंग के फूल पत्तीदार टाइल जड़े हुए हैं। जहां चारों ढलान ऊपर की तरफ एक जगह जाकर मिलते हैं, वहाँ एक बुजी है। सड़क से 16 सीढ़ी उतरकर दाएँ हाथ मंदिर है। एक बड़ा दालान है जिसकी छत आठ खंभों पर खड़ी है।
बीच में एक कुंड है जिसमें शिव जी की काले पत्थर की पिंडी है और उसके तीन और पार्वती, गणेश आदि की संगमरमर की मूर्तियां दालान में संगमरमर का फर्श है। दीवारों और खंभों पर मारबल चिप्स का पलस्तर है। मंदिर की परिक्रमा, जो कभी रही होगी, अब नहीं है। वह एक और दालान में ही मिला दी गई है और दूसरी ओर एक कोठा बना दिया गया है। मंदिर के आगे कोलोनेड है एवं सहन में एक कुआ है। फिर आगे जाकर पांच सीढ़ी चढ़कर दूसरी सड़क यमुना के साथ वाली आ जाती है। पहले तो यहां सब जगह यमुना की धारा बहा करती थी। अब खुश्की हो गई और सड़क निकाल दी गई है। यमुना बहुत नीचे चली गई है। इस सड़क के बाएं हाथ यमुना नदी पर पक्का घाट है।
यह निश्चित है कि मौजूदा मंदिर उस काल का नहीं हो सकता। इसके लिए कई रिवायात मशहूर हैं। कहा जाता है कि हुमायूँ बादशाह ने 1532 ई. में उस मंदिर को तोड़-फोड़कर उसे अपने मनोरंजन का स्थान बना लिया था। यह भी कहा जाता है कि उसके ऊपर लगे रंगीन टाइल वह किसी अन्य स्थान से निकालकर लाया था और 1618 ई. में जब जहांगीर आगरा से कश्मीर जा रहा था तो वापसी पर उसने मंदिर के ऊपर एक कुतबा लिखवा दिया था। यह भी कहा जाता है, जो अधिक संभव है, कि इसे मराठों ने अपने दिल्ली पर अधिकार के समय बनवाया था।