Loksabha chunav 2024:देश के दिग्गज नेताओं को भाती रही है दिल्ली
लेखक: मनोज कुमार मिश्र (वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार)
Loksabha chunav 2024: आजादी के बाद देश में वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई और चुनाव के लायक व्यक्ति को देश के किसी लोक सभा सीट से चुनाव लड़ने की सहुलियत मिली। अनेक राष्ट्रीय नेता अपने लिए सुरक्षित और पार्टी की रणनीति के तहत देश के अनेक हिस्सों से चुनाव लड़कर सांसद बनते रहे।
पाकिस्तान के हिस्से में विभाजन के बाद चले गए सिंध के रहने वाले जेबी कृपलानी आजादी के समय कांग्रेस अध्यक्ष थे। वे कांग्रेस से अलग होकर बिहार के सहरसा, सीतामढ़ी और उत्तर प्रदेश के अमरोहा से सांसद बनकर देश की राजनीति की। वे महात्मा गांधी के अगुवाई में चले 1917 के चंपारण आंदोलन के समय मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह(पुराना नाम ग्रियर भूमिहार ब्राह्मण) कालेज में शिक्षक थे।
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू वैसे तो कश्मीर मूल के थे लेकिन उनका परिवार उत्तर प्रदेश में बस गया था। वे तो वहीं के फूलपुर से सांसद बनते रहे। उनकी पुत्री इंदिरा गांधी भी अपने पति फिरोज गांधी की सीट रायबरेली को अपना चुनाव क्षेत्र बनाया। 1977 में वहां से चुनाव हारने के बाद वे कर्नाटक के चिकमंगलूर से चुनाव लड़ा। उनके पुत्र संजय गांधी भी रायबरेली के पड़ोसी अमेठी से सांसद बने उनकी मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई राजीव गांधी उस सीट से आजीवन चुनाव लड़ते रहे। उनकी हत्या के बाद उनके पुत्र राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़े। उस सीट से पिछली बार वे पराजित हुए लेकिन केरल के वायनाड से सांसद हैं। इस बार भी वहां से चुनाव लड़ रहे हैं।
डाक्टर मनमोहन सिंह और इन्दर कुमार गुजराल के अलावा सभी प्रधानमंत्री लोक सभा के सांसद रहे। लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह और एचडी देवेगौड़ा आदि तो ज्यादातर अपनी परंपरागत सीट से ही सांसद बनते रहे।
दिल्ली देश की राजधानी है। वैसे तो अनेक महानगरों में देश के हर भाग के लोग रहते हैं लेकिन दिल्ली में यह औसत ज्यादा है। कांग्रेस और भाजपा के अनेक दिग्गज नेता दिल्ली से सांसद बन चुके हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तो सबसे अधिक बार उत्तर प्रदेश और खास करके लखनऊ से सांसद रहे लेकिन वे भी दिल्ली से सांसद रहे।
इसी तरह उप प्रधानमंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी गुजरात के गांधी नगर से सांसद रहे लेकिन वे भी दिल्ली से सांसद रहे। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रहने वाले गुजरात के हैं लेकिन लगातार तीसरी बार बनारस से चुनाव लड़ने वाले हैं। कर्नाटक के जार्ज फर्नाडिज पहली बार मुंबई से दिग्गज नेता एसके पाटिल को हराकर सांसद बने थे। बाद में तो उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर को अपना चुनावी क्षेत्र बना लिया था। 1977 का चुनाव ने जेल में रहते हुए मुजफ्फरपुर से रिकार्ड मतों से जीता था।
एक और दिग्गज समाजवादी नेता मधु लिमये भी बिहार से लोक सभा में पहुंचे थे। बसपा के संस्थापक कांशीराम उत्तर प्रदेश के इटावा से सांसद बने थे। यह परंपरा अभी भी जारी है लेकिन पहले से कम हुई है। चुनाव में भाषावाद, क्षेत्रवाद और जातिवाद का बोलबाला शुरू से रहा है। समस्या यही है कि यह कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। देश की राजधानी होने के चलते दिल्ली में अलग तरह का विभाजन है।
इसीलिए दिल्ली में बेहिसाब बढ़ती आबादी के बावजूद राजधानी होने के चलते दिल्ली आज भी राष्ट्रीय नेताओं के चुनाव लड़ने का न्यौता देती रही है। 12 दिसंबर 1911 को जब अंग्रेजों ने कोलकाता (तब कलकत्ता) के स्थान पर राजधानी बनाने की घोषणा की तब दिल्ली की आबादी चार लाख 11 हजार थी। उसके बाद 1915 में जमना पार के अब के उत्तर प्रदेश के 65 गांव दिल्ली में जोड़े गए और दिल्ली 1483 किलोमीटर की हुई।
तब से आज तक दिल्ली की सीमाओं का विस्तार नहीं हुआ है लेकिन आबादी ढाई करोड़ पार कर गई है। देश में 96.8 करोड़ और दिल्ली में1,47,18,119 मतदाता इस बार के लोक सभा चुनाव में मतदान करेंगे। दिल्ली के चलते दिल्ली की सीमा पर बसे उत्तर प्रदेश और हरियाणा के शहरों-गाजियाबाद, लोनी, नोएडा, फरीदाबाद, गुरुग्राम, वल्लभ गढ़ और पलवल इत्यादि की आबादी भी दो करोड़ के पार हो गई है।
आजादी के बाद 1952 में पहले लोक सभा चुनाव में दिल्ली की दोनों सीटों पर स्वाधीनता सेनानी और दिल्ली के गांधी कहे जाने वाले सीके नायर (बाहरी दिल्ली) और सुचेता कृपलानी (नई दिल्ली) से चुनाव जीते। सुचेता कृपलानी लगातार दो बार चुनाव जीतने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो गईं और वहीं मुख्यमंत्री बन गईं। दिल्ली की आबादी बढ़ती गई।
पहले लोक सभा की दो से चार सीटें हुई। 1962 में पांच सीटें हुई और 1967 में सात सीटें हुई। उसके बाद सीटों की संख्या नहीं बढ़ी लेकिन 2006-07 में सभी सीटों को आबादी और विधान सभा सीटों की संख्या के हिसाब से बराबर किया गया। अब हर लोक सभा सीट की आबादी बीस लाख से ज्यादा आबादी की और हर लोक सभा सीट के नीचे दस-दस विधान सभा की सीटें बना दी गई हैं। वैसे तब से अब तक की आबादी में काफी बदलाव होने से सीटों में काफी अंतर हो गया है लेकिन एक हद तक समानता है।
दिल्ली के मूल निवासी तो दिल्ली की सीमा में पहले से बसे करीब 360 गांवों के मूल निवासियों को ही माना जा सकता है। वे भी इसीलिए कि दिल्ली राजधानी बनने से पहले पंजाब प्रदेश से अलग होकर केन्द्र शासित प्रदेश बनी थी। पुरानी दिल्ली में रहने वाले भी दूसरे राज्यों से ही आकर दिल्ली को अपना स्थाई ठिकाना बनाया।
दिल्ली की स्थानीय आबादी आजादी से पहले तीन तरह की थी। पुरानी दिल्ली में अल्पसंख्यक और हरियाणा, उत्तर प्रदेश मूल के व्यवसायी और दिल्ली के गांवों के निवासी। इनमें कांग्रेस की पकड़ ज्यादा थी। आजादी के बाद बड़ी तादात में पाकिस्तान से विस्थापित होकर पंजाब, सिंध और कुछ बंगाल मूल के लोग आए। इनके बीच जनसंघ (अब की भाजपा) की लोकप्रियता ज्यादा रही।
आजादी के साथ केन्द्र सरकार के दफ्तरों में काम करने वाले सरकारी कर्मचारी आए। उनमें भी कांग्रेस के मुकाबले भाजपा की लोकप्रियता ज्यादा थी। आबादी बढ़ने से दिल्ली में कल-कारखाने और व्यवसायिक गतिविधियां बढ़ने लगी। सबसे पहले बड़ी तादात में उत्तराखंड से प्रवासी दिल्ली में आए। तब बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रवासी रोजगार के लिए कोलकाता ज्यादा जाते थे।
सत्तर के दशक में विभिन्न कारणों से वहां के उद्योग बंद होने लगे थे। 1982 के एशियाड खेलों के समय दिल्ली में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य हुए। तभी से पिछड़े राज्यों -बिहार (झारखंड), मध्य प्रदेश( छत्तीस गढ़), ओड़ीशा और पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से बड़ी तादात में लोग दिल्ली आए। जिन्हें दिल्ली की भाषा में पूरबिए या पूर्वांचल का प्रवासी कहा जाता है।
नई आबादी में पहले कांग्रेस और दूसरे गैर भाजपा दलों के बाद अब दिल्ली सरकार में काबिज आम आदमी पार्टी(आप) का समर्थक ज्यादा माने जाते रहे हैं। बढ़ती आबादी के चलते दिल्ली में लोक सभा की सीटें बढ़ी। 1967 में सीटें पांच से बढ़कर सात हुई। तब से सीटें नहीं बदली 2006-07 के परिसीमन के बाद उनके नाम बदले। अब नई दिल्ली, पूर्वी दिल्ली, बाहरी दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली, दिल्ली सदर, चांदनी चौक और करोल बाग (अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित) के बजाए नई दिल्ली, पूर्वी दिल्ली, उत्तर पूर्व दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली, पश्चिमी दिल्ली, उत्तर पश्चिम दिल्ली (अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित) और चांदनी चौक सीटें बनी हैं।
नई दिल्ली सीट से सुचेता कृपलानी, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी, पूर्व नौकरशाह,केन्द्रीय मंत्री और दिल्ली के उप एराज्यपाल जग मोहन और पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजय माकन दो-दो बार सांसद रहे। जग मोहन को 2004 में अजय माकन ने पराजित किया।
आडवाणी ने फिल्म अभिनेता और कांग्रेस उम्मीदवार राजेश खन्ना को पराजित किया। खन्ना को दूसरी बार जग मोहन ने पराजित किया। खन्ना ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ने वाले शत्रुघ्न सिन्हा को नई दिल्ली सीट से पराजित किया। जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक नई दिल्ली से पराजित हुए लेकिन दक्षिणी दिल्ली से एक बार चुनाव जीते और 1971 में हारे। चांदनी चौक सीट से जनसंघ के बड़े नेता वसंत राव ओक को कांग्रेस के दिग्गज राधा रमण ने पराजित किया।
स्वाधीनता सेनानी सुभद्रा जोशी चांदनी चौक से 1971 में जीती लेकिन 1977 में पराजित हो गईं। दिल्ली के पहले मुख्य मंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश दिल्ली सदर से एक बार और बाहरी दिल्ली से चार बार सांसद रहे। वही भाजपा के वरिष्ट नेता कृष्णलाल शर्मा बाहरी दिल्ली से दो बार सांसद रहे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री हरकिशन लाल भगत पूर्वी दिल्ली से तीन बार सांसद बने। बाद में उन्हें भाजपा के बीएल शर्मा प्रेम और लाल बिहारी तिवारी ने पराजित किया। पूर्वी दिल्ली से दिल्ली के पूर्व उप राज्यपाल एचकेएल कपूर(कांग्रेस) और महात्मा गांधी के पौत्र राज मोहन गांधी(आप) पराजित हुए।
दिल्ली पर 15 साल तक राज करने वाली शीला दीक्षित को भाजपा के लाल बिहारी तिवारी ने पूर्वी दिल्ली सीट से और मनोज तिवारी ने उत्तर पूर्व दिल्ली सीट से पराजित किया। जबकि उनके पुत्र पूर्वी दिल्ली सीट से दो बार सांसद बने। उन्हें एक बार भाजपा के महेश गिरी ने पराजित किया। बिहार मूल के महाबल मिश्र पश्चिम दिल्ली से 2009 में सांसद बने वहीं लोकप्रिय भोजपुरी कलाकार मनोज तिवारी उत्तर पूर्व दिल्ली सीट से दो बार सांसद बने। वे इस बार भी भाजपा के दिल्ली उत्तर पूर्व सीट से उम्मीदवार हैं।
दिग्गज नेता और राजनीतिक जीवन में अधिकांश समय सत्ता के शीर्ष पर रहे जगजीवन राम की पुत्री ,केंद्र सरकार में मंत्री रही मीरा कुमार पहले उत्तर प्रदेश के बिजनौर से एक बार और करोल बाग सुरक्षित सीट से दो बार सांसद रही। एक बार पराजित होकर बिहार की अपने पिता की परंपरागत सासाराम सीट से चुनाव जीत कर लोक सभा अध्यक्ष बनी। बाद में उस सीट से भी वे पराजित हो गई।
नई दिल्ली की तरह ही पहले दिल्ली के संपन्न इलाकों से बनी दक्षिणी दिल्ली सीट भी वीआईपी सीट कहलाती थी। इस सीट से भाजपा की सुषमा स्वराज दो बार सांसद रही। भाजपा के नेता विजय कुमार मल्होत्रा और दिल्ली के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रहे मदन लाल खुराना दक्षिणी दिल्ली और सदर से सांसद रहे।
दिल्ली के मुख्य मंत्री रहे साहिब सिंह बाहरी दिल्ली से सांसद रहे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री, भाजपा के विजय गोयल चांदनी चौक और सदर से सांसद रहे। सज्जन कुमार बाहरी दिल्ली से और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर सदर से सांसद रहे। भाजपा के टिकट पर एक क्रिकेटर चेतन चौहान पूर्वी दिल्ली से पराजित हुए तो दूसरे गौतम गंभीर सांसद बन गए। केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को चांदनी चौक सीट पर केंद्रीय मंत्री रहे कपिल सिब्बल ने पराजित किया।
स्मृति ने 2019 अमेठी चुनाव लड़कर राहुल गांधी को पराजित कर दिया। जबकि वे उस सीट से 2009 में पराजित हो गई थी। 1984 में दक्षिणी दिल्ली से सांसद बने ललित माकन और उनकी पत्नी गीतांजलि माकन की सिख आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी। उस सीट पर 1985 में हुए उप चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज अर्जुन सिंह चुनाव जीते और कांग्रेस के इतिहास में पहली बार उपाध्यक्ष बने। देश में दस साल तक प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी दक्षिणी दिल्ली सीट से पराजित हुए। परिसीमन के बाद उस तरह से संपन्न लोगों की सीट दिल्ली में नई दिल्ली रह गई है जहां से अधिवक्ता और केन्द्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी दो बार से सांसद हैं।
2009 में दलित चिंतक उदित राज तो 2014 में पंजाबी सूफी गायक हंस राज हंस भाजपा के टिकट पर सांसद बने। रमेश बिधूड़ी लगातार दो बार से दक्षिणी दिल्ली से ,दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री साहिब सिंह के पुत्र प्रवेश वर्मा और केन्द्र सरकार में मंत्री रहे डॉक्टर हर्षवर्धन सांसद बन रहे हैं। इस बार भाजपा ने मनोज तिवारी के अलावा अपने सभी छह सांसदों को उम्मीदवार को उम्मीदवार नहीं बनाया है। इस बार कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता चुनाव मैदान में नहीं है।
देश भर में यही होता जा रहा है। विचारधारा और काम से अधिक किसी के चुनाव जीतने के लिए वोट समीकरण उसके पक्ष का होना जरूरी है। यह भी माना जाता है कि किसी बड़े नेता के चुनाव लड़ने का फायदा उसके दल को आसपास की सीटों पर भी होता है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा की बड़ी जीत के लिए जो कारण बताए जाते हैं उसमें से एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बनारस से चुनाव लड़ना भी माना जाता है। केरल में कांग्रेस की 2019 में अच्छी जीत को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का वायनाड़ से चुनाव लड़ना भी माना जाता है। वे इस बार भी वहीं से चुनाव लड़ रहे हैं। उनकी अपनी परंपरागत सीट अमेठी से उनकी हार का कांग्रेस पर भारी असर हुआ और कांग्रेस 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव बूरी तरह से पराजित हुई। राजनीति में कभी भी सीधा गणित काम नहीं करता है लेकिन यह माना जाता है कि राष्ट्रीय नेताओं के बड़े पैमाने पर चुनाव लड़ने से उस दल को और वह जिस क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा है, उसको फायदा होता है।