ब्रितानिया हुकूमत के गर्वनर जनरल के एजेंट थॉमस थॉमस मेटकाफ ने दिल्ली के इतिहास को संजोया। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर की तरह ही थॉमस मेटकाफ भी दिल्ली के कलाकारों का सरपरस्त था। 1842 और 1844 के बीच उसने जफर के एक खास मुसव्विर मजहर अली खां को दिल्ली की दरगाहों, महलों, खंडहरों और यादगार मकबरों की तस्वीरें बनाने पर नियुक्त किया था। और फिर उन सबको एक एल्बम में इकट्ठा करके जिल्द बंधवाई और उसका नाम था “देहली की किताब”।

उसका उसने खुद एक लंबा प्राक्कथन लिखा, जिसमें उन सबके बारे में बयान था। बाद में उसने यह किताब अपनी बेटी एमिली को भिजवा दी जब वह अपनी शिक्षा पूरी करके इंग्लैंड से अपने पिता के पास आ रही थी। उसने दिल्ली की तस्वीरों का एक लंबा मंज़रनामा भी बनवाया जो बीस फुट का था। यह दोनों गुदर से पहले की दिल्ली की सबसे मुकम्मल तस्वीरें हैं। और ये तस्वीरें अपने आप में बेहतरीन कलाकृतियां हैं। मज़हर अली खां मुग़ल तकनीक के माहिर थे, लेकिन थॉमस मेटकाफ के लिए काम करते हुए उन्होंने अंग्रेज़ी काग़ज़ और अंग्रेज़ी कला के मिश्रण से ऐसी असाधारण तस्वीरें बनाई कि वह एक नई शैली ही बन गई जिसे अब कंपनी स्कूल कहा जाता था।

उन तस्वीरों के रंगों की सादगी और कमाल, उनमें हर चीज़ की जादुई तफ्सील और बारीकी और उनकी हीरों जैसी रौशनी और चमक जिससे सारी तस्वीर रौशन हो जाती है, यह सब मज़हर अली खां की मेहनत और मुगल ट्रेनिंग का नतीजा हैं। कोई अंग्रेज कलाकार इस तरह रंगों की बहुतायत को इस तरह इस्तेमाल करने का सोच भी नहीं सकता जो बिल्कुल आतिशबाज़ी का एक खूबसूरत नमूना लगती हैं। उस जमाने की मेम साहिबें जो पानी के रंगों से फीकी तस्वीरें बनाती थीं उनका उनसे कोई मुकाबला नहीं था। लेकिन फिर भी जो मुग़ल आर्ट की बारीकी और अंग्रेज़ी के सोचे-समझे वैज्ञानिक तरीके के मिलाप से उन्होंने जो तस्वीरें बनाई वह बिल्कुल जीती-जागती इमारतें लगती हैं। मिसाल के तौर पर गाजीउद्दीन का मकबरा जो दिल्ली कॉलेज के अंदर है, उसकी तस्वीर में न सिर्फ मस्जिद की मुगल गुंबदों की तफ्सील और अनुपात को दिखाया गया है बल्कि कलाकार ने इसमें उस रौशनी और नजाकत का जो वास्तुकार के दिमाग में होगी, उसको समझकर बहुत कमाल से उजागर किया है। पूरा मकबरा इतना नाजुक और हल्का-फुल्का दिखाया गया है जैसे एक फूंक में उड़ जाएगा।

और सिर्फ कला के संरक्षण का गुण ही ज़फर और थॉमस मेटकाफ में समान नहीं था, बल्कि और भी बहुत सी चीज़ों में दोनों के हालात अप्रत्याशित रूप से एक जैसे थे। मसलन दोनों समझते थे कि सियासत में उनके साथ इंसाफ नहीं किया गया। थॉमस मेटकाफ चाहे जितनी शान से दिल्ली के मुहल्लों में अकड़ता फिरता हो, लेकिन दिल में वह जानता था कि उसके बहुत से साथी और कम दर्जे के लोग कंपनी की सर्विस में उससे कहीं ज़्यादा तरक्की कर चुके हैं। जॉन लॉरेंस, जो कभी थॉमस मेटकाफ का मातहत था, अब उससे कहीं बेहतर ओहदे पर पंजाब का गवर्नर बना बैठा था। इससे भी ज़्यादा तकलीफदेह बात यह थी कि उसका अपना बड़ा भाई चार्ल्स जो उससे पहले दिल्ली का रेज़िडेंट था, उसको न सिर्फ लंदन से पीयर का ख़िताब मिल गया था बल्कि उसको कलकत्ते के अस्थायी गवर्नर जनरल से कनाडा का स्थायी गवर्नर जनरल बनाकर भेज दिया गया था। लेकिन थॉमस थॉमस मेटकाफ अपनी पुरानी जगह पर दिल्ली में बैठा रह गया। उसके लिए यह ठीक था लेकिन बावजूद दिल्ली के इतने लंबे अर्से हिंदुस्तान की राजधानी और मुग़लों का केंद्र होने के, कंपनी की सर्विस में यह कोई ख़ास ऊंचा दर्जा न था । और 1833 के बाद जब से उत्तर पश्चिमी सूबों की हुकूमत बन गई थी, जो आगरा में आधारित लेफ्टिनेंट गवर्नर की निगरानी में थी, तब से दिल्ली के रेजिडेंट की अहमियत और भी कम हो गई थी। और उसका रुतबा एजेंट और फिर कमिशनर होकर रह गया। पहले वह मुग़ल दरबार में गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि का दर्जा रखता था लेकिन 1850 के दशक से उसको गवर्नर जनरल के बजाय आगरा के लेफ्टिनेंट गवर्नर को रिपोर्ट करना पड़ता था जो अंग्रेज़ों और मुगलों के रोज़मर्रा के ताल्लुकात के बारे में फैसला करता था। इस तरह थॉमस मेटकाफ के पास सिवाय विरासत के गंभीर मामले के और कुछ गवर्नर जनरल से सीधे तौर पर बात करने के लिए नहीं रहा था।

हैरतअंगेज़ तौर पर थॉमस मेटकाफ और ज़फर के खानदानी हालात भी एक दूसरे से काफी मिलते थे। अगर ज़फ़र को महसूस होता था कि उनकी अपने बड़े बेटे से नहीं बनती है तो थॉमस मेटकाफ को भी यही शिकायत थी। मेटकाफ का बेटा थियोफिलस (थियो) कंपनी की नौकरी में एक सब मजिस्ट्रेट था जो दस साल इंग्लैंड में शिक्षा पूरी करके हाल ही में हिंदुस्तान वापस आया था। वह अपने बाप से बहुत भिन्न था। जहां सर थॉमस खामोश और सावधान मिज़ाज का था, वहीं थियो बहुत मिलनसार और खुले दिल का था, और जब चाहता था तो लोगों को मोह लेता था। बाप तन्हाईपसंद था और लोगों को बुलाना नापसंद करता था, लेकिन बेटा शोर-गुल का दीवाना था और पार्टियां, घुड़सवारी, घोड़े और कुत्ते बहुत पसंद करता था। सर थॉमस वक्त का बहुत पाबंद था और कायदे-कानून पर चलने वाला था, लेकिन थियो बिल्कुल बेलगाम था और अक्सर कानून से कतराकर लड़ाई-झगड़ा मोल ले लेता था।” लिहाजा, कोई आश्चर्य की बात न थी कि बाप-बेटे के संबंध किसी हद तक तनावपूर्ण थे।

इसीलिए, जब सर थॉमस को अप्रैल 1851 में थियो का ख़त मिला जिसमें उसने दिल्ली में अपनी नियुक्ति के बारे में बताया, तो वो घबरा सा गया। उसने अपनी बेटी जॉरजीना (जिसे परिवार में सब जीजी कहते थे) को ख़त में लिखा:

“मैं तुमसे साफ कह रहा हूं कि मुझे उससे मिलने में बहुत खतरा नज़र आ रहा है। जिंदगी के इस मुकाम पर मैं यह नहीं चाहता कि मुझे अपने रहन-सहन में कोई तब्दीली करनी पड़े और मैं अपने ही घर में किसी और का पाबंद बनकर रहूं। मैं अपने तजुर्बे से जानता हूं कि तुम्हारा भाई अपनी इच्छापूर्ति के सामने किसी की परवाह नहीं करता है। मेरा मिज़ाज तेज़ है हालांकि आमतौर पर मैं अपने गुस्से पर काबू रखता हूं। अब मुझे उसके लिए एक बग्घी और घोड़े का इंतज़ाम करना पड़ेगा। मेरे एक दोस्त ने हाल ही में मुझे टोका और कहा कि अगर तुम अपने बेटे को अपनी तख्वाह में गुज़ारा करने के लिए नहीं मना सको, तो फिर वह तुमसे पैसा लेने का हक रखता है। मेरा यह ख़त काफी परेशानी में लिखा गया है लेकिन इससे मेरी भड़ास निकल जाएगी।

उसके बाद उसने ख़त में और इज़ाफ़ा किया जिसमें वह और भी परेशान थाः

प्यारी जीजी, तुम्हें खत लिखने के बाद कल मैंने दिल्ली गैजेट अखबार में “कलकत्ता की ख़बरों” का एक ख़त देखा, जिसमें किसी की एक गैरकानूनी कार्रवाई करने का ज़िक्र है जो मुझे डर है कि तुम्हारे भाई की तरफ इशारा है। अगर ऐसी बात है, तो उसने न सिर्फ लॉर्ड डलहौज़ी को नाराज़ कर दिया है बल्कि उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकद्दमा भी चल सकता है और उस पर दस-बारह हज़ार रुपए का जुर्माना भी हो सकता है जो ज़ाहिर है मुझे ही भरना पड़ेगा वर्ना वह जेल की हवा खायेगा। यह अजीब मुसीबत है। अगर यह हुआ तो मैं तुम्हारी बहन को भी लंदन से बुलाने का खर्चा नहीं उठा पाऊंगा। कितने अफसोस की बात है कि थियो सावधानी और समझ से काम नहीं ले सकता। उसकी फिजूलखर्ची अपने आप में ही एक अलग बुराई थी।

सर थॉमस का अपने बेटों के मुकाबले अपनी बेटियों के साथ रिश्ता हमेशा ज़्यादा सहज रहा। एमिली और जीजी को लिखे हुए उसके ख़तों में ज़्यादा गर्मजोशी और अपनाइयत है।

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