1857 के विद्रोह को कैसे दबा दिया गया

गदर के वाद, मिर्ज़ा इलाहीबख्श को, जिसने देशद्रोह करके अंग्रेजों का साथ दिया था, बादशाह के खिलाफ गवाही दी थी, तैमूर खानदान का वारिस करार दिया गया। वह औरंगजेब के लड़के शाह आलम प्रथम को पांचवीं पुश्त में था। इलाहीबख्श और उसके खानदान को 27,827 रुपये 6 आना सालाना की पेंशन दी गई।

इलाहीबख्श को 13,278 रुपये 8 आने अपने खानदान वालों को बांटने पड़ते थे और 14,548 रुपये 14 आने उसके लिए बाकी बचते थे। सन् 1878 में मिर्जा इलाहीबख्श की मृत्यु हो गई। उसने तीन लड़के छोड़े। बड़ा लड़का सुलेमान शाह 1890 ई. में और छोटा लड़का मिर्जा सुरैया शाह 1913 ई. में मर गया। अर्से तक खानदान की विरासत पर झगड़ा चलता रहा, जो सन् 1925 में खत्म हुआ। उसी वर्ष मोहम्मद शाह का भी देहांत हो गया। उसके कोई नर औलाद न होने से आगे के लिए कोई वारिस न रहा। इस प्रकार मुगल खानदान का खात्मा हो गया।

सन् 1857 के गदर का बदला बड़ी ही क्रूरता और बरबादी के साथ लिया गया। उसमें अंग्रेजों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। दिल्ली ने तैमूर लंग को भी देखा था और नादिर शाह को भी, मगर वे लुटेरों की तरह आए और चले गए। लेकिन ये अंग्रेज तो यहां शासन करने आए थे और वह भी सात हजार मील दूर बैठकर चंद गोरों के द्वारा। चुनांचे उन्होंने दिल्ली को इस बुरी तरह नोचा-खसोटा कि इसे मिट्टी में मिला दिया।

तमाम मुसलमानों को शहर बदर कर दिया गया और हिंदू भी वही बचे, जो अंग्रेजों की वफादारी का दम भरते थे। वरना उनके घर-बार भी तबाही से बच न सके चारों ओर लूट-मार और गारतगरी मची हुई थी। कोतवाली पर फांसियां लटकी हुई थीं। फौजी अदालत ने तीन हजार लोगों पर मुकदमे चलाए और एक हजार को फांसी पर चढ़ा दिया। शाही खानदान वालों, उमरा और रईसों के जितने महलात और हवेलियां थीं, वे जब्त कर ली गई और कौडियों के मोल नीलाम कर दी गई। वही हवेलियां कालांतर में बड़ी-बड़ी गंदी बस्तियों के कटरे बन गए।

लोग जब दोबारा शहर में आकर आबाद हुए तो लोथियन रोड के इलाके के तमाम मकान, चांदनी चौक के दरीचे तक के मकान और उधर जामा मस्जिद तक के तमाम मकान और बाजार गिराकर मिस्मार कर दिए गए, कोई दोमंजिला मकान बाकी रहने नहीं दिया गया, ताकि किले पर से तोप के गोले फेंकने में रास्ते में रुकावट न पैदा हो। कुछ मस्जिदें भी गिरा दी गई और जामा मस्जिद तथा फतहपुरी मस्जिद को जब्त कर लिया गया। फतहपुरी मस्जिद में फौजें रखी गई और जामा मस्जिद में घोड़े बांधे गए। खौफ और आतंक का यह आलम था कि काले सिपाही की लाल पगड़ी से लोग कांप उठते थे, गोरे की तो बात ही क्या! और यह हालत एक दो वर्ष नहीं, पचास वर्ष तक ऐसी रही कि दिल्ली जीते-जागतों की आबादी न रहकर एक खामोश शहर हो गया।

एक डिप्टी कमिश्नर था, जिसकी सब तरफ हुकूमत चलती थी और लोग उसकी खुशनूदी हासिल करने के लिए लालायित रहते थे। उससे जो मिलने जाते थे, वे खड़े रहते थे। बाद में जिन लोगों को कुर्सी पर बैठने की इजाजत मिलने लगी, वे कुर्सीनशीन कहलाने लगे। यह बात भी सन् 1913 में जाकर शुरू हुई, जब दिल्ली राजधानी बन गई थी। उससे पहले तो क्या हिंदू और क्या मुस्लिम, सब अंग्रेजों के गुलाम थे। हर एक की यही कोशिश होती थी कि साहब बहादुर उसकी तरफ मुस्कराकर देख भर लें। आत्म-सम्मान की गिरावट की हद हो गई थी।

अंग्रेजों ने सिविल लाइन को अपनी दिल्ली बना लिया था और शहर की ओर वे कहर की दृष्टि से देखते थे। सिविल लाइन में उनके बड़े-बड़े आलीशान बंगले थे, उनके अपने क्लब थे, जिनमें हिंदुस्तानी शरीक नहीं हो सकते थे, सब प्रकार की सुविधा और साधन वहां मौजूद थे और दिल्ली बेकसी की हालत में थी। शहर की सफाई और सेहत की हालत यह थी कि मलेरिया और मौसमी बुखार तो फैला ही रहता था, प्लेग का भी हमला हो जाता था। किसी प्रकार की तरक्की के अवसर यहां मिलने कठिन थे। इसी कारण यहां की आबादी बढ़ने नहीं पाती थी।

अगर दिल्ली को राजधानी बनाने की हिमाकत अंग्रेजों ने न की होती तो यहां की हालत सुधरने की कोई सूरत न थी, मगर सन् 1911 में जब सम्राट जार्ज पंचम का दिल्ली में दरबार हुआ तो उसने कलकत्ता से राजधानी हटाकर दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। लाचार अंग्रेजों को भी दिल्ली की दुरुस्ती की ओर ध्यान देना पड़ा। यह कोई हिंदुस्तानियों पर इनायत करने के लिए न था, बल्कि खुद अपने को खतरे से बचाने के लिए था, क्योंकि दिल्ली की सेहत खराब रहने से उनको अपने लिए खतरा था।

इसलिए दिल्ली में अंग्रेजी शासन के तीन भाग किए जा सकते हैं: (1) सन् 1803 से 1857 तक, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है; (2) सन् 1857 से 1911 तक, और (3) सन् 1912 से 1947 तक, जब भारत में अंग्रेजी शासन समाप्त हुआ और 16 अगस्त को लाल किले पर यूनियन जैक की जगह तिरंगा झंडा लहराने लगा। सन् 1857 से 1911 तक दिल्ली, पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर के तहत में रही। सारी हुकूमत पंजाब से ही होती थी। न्याय, पुलिस, नहर, पढ़ाई- सब कुछ पंजाब के अधीन था, पंजाब के ही कायदे कानून यहां लागू होते थे। दिल्ली में दो तहसीलें थीं- बल्लभगढ़ और सोनीपत डिप्टी कमिश्नर यहाँ का शासक हुआ करता था और उसके साथ पुलिस कप्तान। चीफ कमिश्नर तो बाद में जाकर यहां का शासक बना।

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