सितंबर 1858 में जफर के भविष्य पर आया यह बड़ा फैसला

1857 की क्रांति: आखिरकार सितंबर 1858 के आखिर तक यह फैसला किया गया कि अब बहादुर शाह जफर को दिल्ली से बाहर भेजा जाएगा। हालांकि अभी यह तय नहीं किया गया था कि उन्हें कहां भेजा जाएगा। लेफ्टिनेंट ओमैनी को उनके साथ निर्वासन तक जाने के लिए नियुक्त किया गया और उसे निर्देश दिया गया कि सरकारी कैदी (जैसा कि अब जफर को कहा जाने लगा था) रास्ते में किसी से बिल्कुल संपर्क न कर सके।

7 अक्टूबर को सुबह चार बजे, बाबर के इस शहर को फतह करने के 332 साल बाद, आखरी मुगल शहंशाह ने बैलगाड़ी में बैठकर देहली छोड़ी। उनके साथ उनकी बीवियां, उनके दो जिंदा रह गए बच्चे थे (जवांबख़्त के अलावा, एक और बेटा अंग्रेजों के कत्ले-आम से बच गया था। यह जफर का सबसे छोटा बेटा मिर्जा शाह अब्बास था, जो जफर का सोलहवां बेटा था। वह 1845 में पैदा हुआ था और ज़फ़र की एक रखैल मुबारकुन्निसा की नाजायज औलाद था, और इस तरह वह तेरह साल का था जब उसने ज़फर और अपनी मां के साथ दिल्ली छोड़ी), और कुछ रखैलें और नौकर थे। कुल मिलाकर यह 31 लोग थे। यह सब नौवीं लैंसर्स की सुरक्षा में थे, जो एक घुड़सवार तोपखाने, दो पालकियों और तीन पालकी गाड़ियों का दस्ता था। यह सफर बिल्कुल खुफिया रखा गया था। यहां तक कि ज़फर भी इसके बारे में नहीं जानते थे। उन्हें इसके बारे में तब पता चला जब उन्हें ओमैनी ने सवेरे तीन बजे जगाया और तैयार होने को कहा। मैटिल्डा सॉन्डर्स ने अगले हफ्ते अपनी सास को लिखाः

“उन्हें जितनी जल्दी मुमकिन था वहां से रवाना कर दिया गया। हर बात विल्कुल राज में रखी गई। हालांकि सी (चार्ल्स सॉन्डर्स) को बहुत पहले से मालूम था और वह उनके सफर के लिए सवारियां, ढकी हुई पालकियां, बैलगाड़ियां और खेमे वगैरा खरीदने में व्यस्त थे।

बंदोबस्त और व्यवस्था में कोई कमी नहीं थी और सुबह तीन बजे बेचारे चार्ल्स बिस्तर से उठे और उन्होंने अपने योग्य मातहत ओमैनी की उन्हें सवार कराने में मदद की। चार बजे उन्होंने उनको लैंसर्स के दस्ते की सुरक्षा में देकर उन्हें कश्तियों का पुल सुरक्षित पार करते देखा। शुक्र है दिल्ली के बादशाह से छुटकारा मिला। उनको दो मलिकाएं और दो छोटे बेटे और उनमें से बड़े बेटे की बीवी उनके साथ थी। कुछ और रिश्तेदार भी थे, जिन्हें यहां रुकने या जाने की आज़ादी थी, लेकिन उन्होंने बादशाह के साथ जाकर उनका साथ देने का फैसला किया।”

उसने आगे लिखाः “उन्हें जाते देखने को कोई भीड़ जमा नहीं हुई। इतने सवेरे वहां बिल्कुल शांति और खामोशी थी।

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