1857 की क्रांति: मुईनुद्दीन हुसैन खान शहर के दक्षिण-पश्चिम में पहाड़गंज के पुलिस स्टेशन के थानेदार थे। वह नवाब लोहारू के परिवार से दूर से संबंधित थे, और उनकी दिल्ली में तरक़्क़ी इसलिए हुई थी कि उन्होंने उन्नीसवीं सदी के शुरू में मराठों के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की मदद की थी। वह ग़ालिब और नवाब जियाउद्दीन खान के भी रिश्तेदार थे, जो पिछली रात को वैगनट्राइबर परिवार को ख़तरे से आगाह करने गए थे।
वह अंग्रेज़ों के बहुत समर्थक थे और सर थॉमस और थियो मैटकाफ् के ख़ानदानी दोस्त थे। उनको जब पूरियों और चपातियों के दिल्ली के इर्द-गिर्द के गांवों में बंटने की सूचना मिली तो उनको काफी ख़तरा महसूस हुआ और उन्होंने यह भी सुना कि उत्तरी हिंद में अंग्रेज़ों के घर जला दिए गए हैं। लेकिन बावजूद इसके कि वह खुद थियो से मिलने गए और उसको ख़बरदार किया कि इसी तरह के संकेत आधी सदी पहले मराठों के पतन से पहले देखे गए थे, उनको महसूस हुआ कि उनकी इन कोशिशों का कोई असर नहीं हुआ।
उन्होंने बाद में लिखा कि “हुकूमत के अफसरों ने उनकी ख़बरदारी को कोई महत्व नहीं दिया और ना ही उन्होंने उसकी परवाह की जिसको हम आने वाले ख़तरे और उस बेचैनी का संकेत समझ रहे थे जो पूरे मुल्क में फैल रही थी।
11 मई को सुबह-सुबह मुईनुद्दीन कचहरी में चीफ मजिस्ट्रेट हचिन्सन के साथ एक आपराधिक मामले की पैरवी में मसरूफ़ मौजूद थे जब यमुना पुल का दारोगा भागम-भाग वहां हचिन्सन को ख़बर देने आया था कि मेरठ से सिपाही आ पहुंचे हैं और हचिन्सन ने उन्हें फौरन शहर के कोतवाल को आगाह करने भेजा था। वहीं उन्होंने राजघाट के दरवाज़े से आते हुए एक संदेशवाहक से यह ख़बर भी सुनी कि शहर के अंदर भी बागी घुस आए हैं। ख़तरे के आसार को देखकर उन्होंने फौरन जाकर हचिन्सन को सारी ख़बर सुनाई और फिर जल्दी से अजमेरी दरवाज़े से गुज़रते हुए वह अपनी पुलिस चौकी में वापस आए। वहां वह अपने सिपाहियों की हथियारबंदी और तैयारी में मसरूफ ही थे कि एक अकेला, फटेहाल अंग्रेज़ सिर्फ कमीज़ और जांघिया पहने घोड़े पर सवार वहां पहुंचा। और वह था थियो मैटकाफ ! थियो को याद नहीं था कि वह कितनी देर बेहोश पड़ा रहा। लेकिन इस हंगामे में किसी ने उसको खाई में शांत पड़ा नहीं देखा । उसका घोड़ा भी क़रीब ही घास चर रहा था। जब उसे होश आया तो वह हिम्मत करके घोड़े पर सवार हुआ और नंगी तलवार हाथ में लेकर अजमेरी दरवाज़े से बाहर निकल आया। वह उन आखरी ईसाइयों में से था जो बागियों से बचकर फरार हो सके थे।”
मुईनुद्दीन जल्दी से थियो को पुलिस थाने के अंदर ले गए ताकि कोई उसको देख ना ले। और फिर उन्होंने उसको अपने हिंदुस्तानी कपड़े पहनवा दिए। अब उन्होंने अपने सवार भेजे ताकि मालूम करें कि छावनी का रास्ता खुला है या नहीं। वह चंद ही मिनट के बाद बहुत डरे हुए वापस आ गए और कहा कि वह सड़क पूरी तरह से लोगों से भरी है जो खूब लूटमार मचा रहे हैं।
मुईनुद्दीन और थियो दोनों बाहर बाहर पतली-पतली गलियों से गुज़रते गए। वह उम्मीद कर रहे थे कि वहां उनको किसी खतरे का सामना नहीं करना पड़ेगा। लेकिन वह ज़्यादा दूर नहीं गए थे कि उनको अंदाज़ा हो गया कि वह किसी भी तरीके से शहर पार नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने तय किया कि बेहतर यही होगा कि थियो किसी घर में छिप जाए। मुईनुद्दीन ने एक स्थानीय जमीनदार भूरा खां मेवाती के घर का चयन किया और थियो से कहा कि वह बिल्कुल बाहर ना निकले जब तक कि यह हंगामा बिल्कुल ख़त्म नहीं हो जाए और छावनी के सिपाही हालात पर काबू नहीं पा लें।
थियो को वहां छोड़कर मुईनुद्दीन वापस अपनी पुलिस चौकी गए और उन्होंने अपनी वर्दी उतारकर घरेलू हिंदुस्तानी कपड़े पहने। फिर वह शहर की तरफ रवाना हुए और बिना पहरे के दरवाज़े से अंदर दाखिल हुए और अपने डरे हुए परिवार की खैरियत मालूम करने के बाद सीधे किले का रुख किया ताकि वह अंग्रेजों की गैर मौजूदगी में बादशाह की ड्यूटी बजाएं।
जब वह चावड़ी बाजार की बंद दुकानों से गुज़र रहे थे, तो उनको ख्याल आ रहा था कि किस तरह चंद लोगों के अचानक हमले से इतनी तबाही हो रही थी। बागियों की ताकत से बेख़बरी और तादाद की अतिशयोक्तिपूर्ण अफवाहों ने शहर के शरीफ लोगों को बिल्कुल बेबस कर दिया था और वह अपने बचाव और इस लूटमार को रोकने का कुछ उपाय नहीं कर पाए। दो घंटे के अंदर-अंदर एक शानदार शहर लड़ाई का मैदान बन गया था।
“शहर के सारे प्रमुख प्रशासक मारे जा चुके थे। हर आदमी सिर्फ अपनी या अपने खानदान के बचाव और घर की रखवाली की फिक्र कर रहा था। जब वह बड़ी पुलिस चौकी पहुंचा तो मैंने देखा कि वह भी लूटी जा चुकी है, यहां तक कि लोग उसके दरवाज़े भी उखाड़कर ले गए हैं।
जब मुईनुद्दीन अंदर दाखिल हुए तो उन्होंने देखा कि खंडहर बन चुकी चौकी में दो पुलिस वाले छिपे थे। उन्होंने बताया कि दो सवार वहां आए और आवाज़ लगाई कि “क्या तुम सब दीन की सुरक्षा करने वाले हो या उसके खिलाफ हो ?” कोतवाल ने जवाब दिया कि हम सब दीन को मानने वाले हैं, तो सवारों ने सब मुज़रिमों को रिहा कर दिया।
थोड़ी देर बाद दो आदमी हरे कपड़े पहने और लाल पगड़ियां बांधे ऊंटों पर सवार वहां से यह कहते हुए गुज़रे, “लोगो, सुनो, और ख़बरदार रहो, मज़हब का डंका बज चुका है।” वह किधर से आए और किधर गए उन लोगों को मालूम नहीं था। लेकिन बाहर जिन लोगों की भीड़ लगी थी उनको यकीन हो गया कि वह आसमानी संदेशवाहक थे। फिर सारे मुज़रिम कैदी लोहार के पास से अपनी बेड़ियां और हथकड़ियां तुड़वाकर वापस आ गए और उन्होंने पुलिस चौकी को खूब जमकर लूटा।”
जब मुईनुद्दीन किले में पहुंचे तो देखा कि वहां भी ख़ूब अफरा-तफरी है। वहां कोई पहरेदार भी नहीं था। वह खाली कमरों से गुज़रते तस्बीहखाने पहुंचे और जो दो ख्वाजासरा वहां रह गए थे उनसे निवेदन किया कि वह उनको बादशाह के पास जाने दें। “मैंने बादशाह मिन्नत की कि इस लूटमार को रुकवा दें और सल्तनत में फिर से अमन कायम करवा दें।” उन्होंने जवाब दिया, “मैं बेबस हूं, मैं क्या कर सकता हूं। मेरे सब खिदमतगार या तो अपनी समझ खो बैठे हैं या भाग खड़े हुए हैं। मैं यहां बिल्कुल अकेला रह गया हूं। मेरा आदेश मानने के लिए कोई फौज नहीं है। मैं क्या करूं?
मुईनुद्दीन ने फिर ज़फर से पूछा कि अब आपका क्या आदेश है? बादशाह ने उनको अपने दो चोबदारों के साथ दरियागंज भेजा कि अगर वहां कोई ईसाई बचे हों तो उनको ढूंढ़कर सुरक्षा से किले ले आएं, और उनको किले में पनाह देने का वादा किया। “मैंने और चोबदारों ने ज़ोर-ज़ोर से बादशाह सलामत के आदेश का ऐलान किया कि कत्लो-गारत फौरन बंद कर दी जाए। मगर हमारी दखलअंदाज़ी का सिर्फ इतना असर हुआ कि क़रीब दर्जन भर लोगों की ही जान बच पाई। उनको किले भेज दिया गया और छोटा ख़ासा कमरों में रखा गया जहां उनको खाना खिलाने का आदेश दिया गया। मैं शाम तक इस उम्मीद में एक बंगले से दूसरे बंगले में घूमता रहा कि शायद कोई वहां जिंदा मिल जाए जिसे मैं बचा सकूं। लेकिन बहुत कम ईसाई मिले जिनको किले पहुंचा दिया गया। शाम चार बजे तक मुईनुद्दीन ने उन्नीस बचे हुए लोग ढूंढ निकाले जिनको बादशाह के पास भेज दिया गया।
लेकिन दिन ढलने तक मेरठ से और सिपाही किले में आ गए और वहां भी हालात बहुत ख़राब हो गए। जब मुईनुद्दीन के कुछ कि देर बाद सुबह 11 बजे – ज़हीर देलहवी आए, तो उन्होंने देखा ज़फ़र के आदेश पर हकीम अहसनुल्लाह खान महल के दर्जियों की निगरानी कर रहे थे जो फ्रेज़र, डगलस और जेनिंग्स खानदान के लिए कफ़न सी रहे थे और सब नौकर और दरबारी भी वहां जमा हो रहे थे। ज़फ़र का आदेश था कि किले के सब लोग अंग्रेज़ों के जनाज़े में शिरकत करेंगे। उसी वक्त बागी सिपाहियों का एक घुड़सवार दस्ता बगैर इजाज़त धौंस जमाता हुआ किले में दाखिल हुआ और बादशाह के जाती कमरों में घुस गया जो लाल पर्दे के दूसरी तरफ थे और जहां जाने की इजाज़त नहीं थी