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1857 की क्रांति: जैसे-जैसे घेराबंदी के दिन गुजरते गए, हालात और ज़्यादा खराब होते गए। बहादुर शाह जफर का दरबार में बर्ताव और भी ज्यादा तुनकमिजाज और खुदगर्जी भरा होता गया। कभी-कभी तो उनका व्यवहार पागलपन की हद तक अजीबो-गरीब होता, किसी हिंदुस्तानी किंग लियर जैसा। उन्होंने अपने ससुर को अवध का नवाब नियुक्त कर दिया, एक ऐसे सूबे का जिस पर मुगलों की अठारहवीं सदी से हुकूमत नहीं थी  और फिर उन्होंने एक बागी सिपाही अफसर को यह कहकर दिल्ली में रहने को मनाया कि वह उसको गुजरात और दकन का सूबेदार बना देंगे, जो मुगलों के हाथों से इससे भी बहुत पहले निकल चुके थे। अगस्त के शुरू में उन्होंने शायरी करने में पनाह ली और उनके शेर उनके मूड की तरह निराशा की गहरी खाइयों से लेकर अवास्तविक आशावाद की उड़ान भरते।

जासूस गौरी शंकर ने 7 अगस्त को सूचना दी कि ‘बादशाह सारे दिन गुज़लें लिखने में मसरूफ रहते हैं। अपनी एक ग़ज़ल में उन्होंने लिखा हम जल्द ही लंदन पर कब्जा कर लेंगे, लंदन दूर नहीं है’।

जब वह शायरी नहीं कर रहे होते थे, तो उनका ज़्यादातर वक़्त सिपाहियों को अपने प्रिय बाग़ों से बाहर निकालने में गुज़रता था। उनमें से ज़्यादातर खुद उनके लगवाए हुए थे। आखिरकार उन्होंने यह काम जून में पूरा किया, लेकिन दो हफ्ते बाद ही कोई दो सौ सिपाहियों और एक डॉक्टर ने अपने खानदान के साथ फिर उन पर कब्ज़ा जमा लिया। उन्होंने बहुत तंग आकर मिर्ज़ा मुग़ल को लिखा, “शाही सवारी अक्सर इस तरफ जाने का इरादा करती है, लेकिन इस मौके पर हमें बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है। तुम हमारे बेटे हो और हम तुम्हें आदेश देते हैं कि तुम कोर्ट के अफसरों से इस बारे में बात करो और उन सिपाहियों और देसी डॉक्टर को हमारे बागों से हटवाओ।”

और कई बार ऐसा लगता था कि ज़फर बस भाग जाना चाहते हैं। उनकी धमकी कि वह दिल्ली छोड़ देंगे और हज के लिए चले जाएंगे और फिर वहां इबादत की जिंदगी बसर करेंगे, शुरू-शुरू में तो एक बहाना था बगावत में एकता पैदा करने और सिपाहियों पर ज़ोर डालने का कि वह उनका आदेश मानें और उनके शहर को तबाह न करें। लेकिन जुलाई तक ऐसा लगने लगा था कि यह वाकई उनकी दिली ख़्वाहिश थी। ताकि वह अपने हालात की बदहाली से फरार हो सकें। वह देख चुके थे कि हर चीज़, जो उन्होंने सोच-समझकर कायम की थी और जो संस्कृति का केंद्र उन्होंने बनाया था और जिस नस्ल को सुरक्षित रखने में उनकी सारी जिंदगी गुजर गई थी, वह सब उनकी आंखों के सामने तबाहो-बर्बाद हो रहा था और वह बेबसी से देख रहे थे।

ज़फर किस हद तक अपने हालात में कैद थे इसका अंदाज़ा उनके एक बेबसी भरे खत से होता है, जो उनके मुकद्दमे के वक़्त पेश किया गया था। यह एक मामूली जागीरदार अब्दुर्रहमान के नाम था, जो झज्जर के छोटे से बाजार शहर के नवाब थे। यह वही शख्स थे, जिन्होंने थियो को पनाह देने से इंकार कर दिया था, जब वह उनसे मिन्नत कर रहे थे कि वह आकर उनको बचा लें। वह नवाब को, जो एक छैला किस्म के आदमी थे, ‘जंग का शेर’ कहकर खिताब करते हैं और लिखते हैं: “इतने नाखुशगवार हालात की वजह से और अपनी बढ़ती उम्र और गिरती सेहत की वजह से अब हममें ताकत नहीं है कि हम हुकूमत और मुल्क के मामलात संभाल सकें। अब हमारी कोई और ख़्वाहिश नहीं रही है सिवाय नेक काम करने के, खुदा और इंसानियत की राह में अपनी जिंदगी के बाकी दिन अल्लाह की इबादत और खिदमत में गुज़ारने के।

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