1857 की क्रांति : 14 मई को बहादुर शाह जफर को अंदाजा हुआ कि उनके पास सिपाहियों पर जोर डालने के लिए एक चाल बाकी है: वह है असहयोग। पहली बार इस ताकत का अंदाजा उन्हें 14 मई को हुआ, जब सिपाहियों ने उनके प्रिय महताब बाग से निकल जाने के आदेश को मानने से इंकार कर दिया था।

यह देखकर वह ‘परेशान और दुखी होकर अपने निजी कमरे में चले गए और किसी से भी मिलने से इंकार कर दिया’ । थोड़ी ही देर में कुछ सिपाहियों ने उनके बाग़ से निकलकर छावनी के बचे-खुचे इलाके की ओर जाना शुरू कर दिया

इसका असर देखकर ज़फ़र ने एक हफ्ते के बाद ऐलान जारी किया, जिसमें यह धमकी दी गई कि अगर लूटमार बंद नहीं की गई, तो वह शहर बिल्कुल छोड़कर मक्का चले जाएंगे। यह वही धमकी थी, जो पांच साल पहले उन्होंने सर थॉमस मैटकाफ को दी थी। इस बार यह कारगर रही।

बाकर ने इस वाकए को पसंद करते हुए अपने अख़बार में जगह दीः ऐलान किया जाता है कि रिआया की जो लूटमार हो रही है और शहर भर में जो तबाही और बर्बादी फैली हुई है, उसको देखकर शहंशाहे आला ने यह ऐलान फरमाया है कि सिपाही आम लोगों और शाही नौकरों की जिंदगी अजाब किए हुए हैं और यह काबिले-बर्दाश्त नहीं है। पहले फिरंगी मनमाना आदेश देकर हमारे लोगों को परेशान करते थे और उनके सिपाही हमारी रिआया पर जुल्म ढाते थे, और अब तुम तिलंगे लोग उनको और भी ज़्यादा तकलीफ और परेशानी पहुंचा रहे हो। अगर यह जारी रहा, तो समझ लो कि यह आखरी दिन हैं।

तख्तो ताज या मालो-दौलत से कोई मुहब्बत नहीं है, इसलिए मैं ऐलान करता हूं कि मैं गोशानशीन हो जाऊंगा और सब कुछ छोड़कर महरौली जाकर ख्वाजा साहब के सूफी मजार पर कुछ दिन गुज़ारूंगा और मेरी रिआया भी अपने बादशाह का साथ देगी और मेरे साथ चली जाएगी। फिर मेरा इरादा वहां से कावे और मक्का में हरम शरीफ की तरफ जाने का है, जहां मैं अपनी ज़िंदगी के बाकी दिन दुआओं और ख़ुदा की याद करने और अपने गुनाहों की माफी मांगने में गुजारूंगा।

‘कहा जाता है कि जब यह बयान पढ़ा गया, तो दरबार में सबकी आंखें आंसुओं से भर आईं। आइये हम खुदावंदे तआला से, जो सबकी मदद करने वाला है, यह दुआ करें कि वह ऐसे हालात पैदा कर कि शहर में अमनो-अमान कायम हो जाए। इससे न सिर्फ शहर के लोगों को राहत मिलेगी, बल्कि बादशाह सलामत के माथे से फिक्र और परेशानी की लकीरें भी दूर हो जाएंगी।’ लेकिन ऐसा हो नहीं सका। 19 मई को और भी ज्यादा मतभेद आसार सामने आने लगे। उस दिन सुबह को दिल्ली के एक बहुत कट्टर मौलाना मौलवी मुहम्मद सैयद ने जिहाद का झंडा जामा मस्जिद में गाड़ दिया ताकि इस बगावत को पूरी तरह मुसलिम जिहाद का रंग दे सकें।

जफर ने फौरन उसको हटाने का आदेश दिया ‘क्योंकि इस तरह का कट्टरपन हिंदुओं को नाराज कर देगा।’ अगले दिन 20 मई को जब सूचना आई कि दिल्ली फील्ड फोर्स अम्बाला में जमा हो रही है, उस वक़्त वह मौलवी साहब किले में ज़फर से बहस करने पहुंच गए और कहा कि सारे हिंदू अंग्रेज़ों से मिले हुए हैं, इसलिए उनके खिलाफ जिहाद करना बिल्कुल जायज है। उसी वक़्त हिंदुओं का एक प्रतिनिधिमंडल भी किले में पहुंच गया और बहुत गुस्से से मौलवी के इल्जामों से इंकार किया। ज़फ़र ने कहा कि उनकी नज़ों में हिंदू और मुसलमान बराबर हैं और ‘ऐसा जिहाद बिल्कुल नामुमकिन और गलत है क्योंकि ज़्यादातर पूरबिया फौजी हिंदू थे। ऐसा करने से गृहयुद्ध शुरू हो जाएगा और उसका नतीजा बहुत बुरा होगा। अगर जिहाद है, तो अंग्रेज़ों के खिलाफ है। मैं हिंदुओं के ख़िलाफ़ जिहाद करने के लिए सख्ती से मना करता हूं।’

बगावत के इस बिंदु पर तो ज़फ़र ने जिहादियों को खामोश करने में कामयाबी हासिल कर ली। लेकिन 8 हफ्ते बाद जब उत्तरी भारत से बहुत से वहाबी मुजाहिदीन आकर दिल्ली में जमा हो गए, तो उस वक्त ऐसा करना बहुत मुश्किल हो गया।

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