10 जनवरी, 1966 को भारत-पाकिस्तान ने ‘ताशकन्द घोषणा (Tashkent Declaration) पर हस्ताक्षर किया। हालांकि पाकिस्तान ने इसे ‘समझौता’ मानने से इनकार कर दिया था। शास्त्री (lalbahadur shastri) और अयूब (ayub khan) ने ‘ताकत का इस्तेमाल न करने और शान्तिपूर्ण तरीकों से आपसी झगड़े सुलझाने के अपने दायित्व की पुष्टि की। घोषणा में कहा गया था- भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति के बीच यह सहमति हुई है कि दोनों देशों के सभी आदमियों को 25 फरवरी, 1966 से पहले-पहले 5 अगस्त, 1965 से पहले की पोजीशनों पर हटा लिया जाएगा, और दोनों देश युद्ध-विराम रेखा पर युद्ध-विराम की शर्तों का पालन करेंगे।

खैर, भारतीय मंत्री नई दिल्ली लौटने से पहले राष्ट्रपति अयूब से भी मिले। स्वर्ण सिंह ने अपने मधुर और व्यवहार कुशल अंदाज में उन्हें बताया कि बातचीत आगे नहीं बढ़ पा रही थी, क्योंकि पाकिस्तानी प्रतिनिधि कश्मीर के मामले में कुछ ‘रियायतों’ पर अड़े हुए थे। “हम क्या करें?” अयूब ने जवाब दिया, “आप लोग कश्मीर मसले को सुलझाना ही नहीं चाहते। वह मूल मुद्दा है।” स्वर्ण सिंह ने वापसी की उड़ान में इस पर चुटकी लेते हुए कहा था, “जिस चीज (कश्मीर) को आप लड़ाई के मैदान में नहीं जीत सके, उसे बातचीत की मेज पर पा लेने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?”

कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि शास्त्री से आखिरी बार राजदूत कौल द्वारा प्रधानमंत्री के सम्मान में दी गई पार्टी में वो मिले थे। उन्होंने मुझसे कहा था कि वापसी का सफर आसान रहेगा, क्योंकि राष्ट्रपति अयूब ने उन्हें इस्लामाबाद में चाय का न्यौता दिया था। ने मुझे ताशकन्द घोषणा के बारे में अखबारवालों की प्रतिक्रिया जानने के लिए कहा। ये कुछ चिन्तित दिखाई दे रहे थे। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि दिन में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में दो-तीन भारतीय पत्रकारों का रुख बहुत ‘रूखा’ रहा था। वे जानना चाहते थे कि शास्त्री पाकिस्तान को हाजी पीर और टिथवाल की बेहद महत्त्वपूर्ण चौकियों वापस करने के लिए राजी क्यों हो गए थे। शास्त्री ने कहा कि वे ‘हमले में लूटे इलाकों को अपने पास नहीं रख सकते थे, जैसाकि भारत के सबसे अच्छे दोस्त रूस का भी कहना था।

एक पत्रकार ने तो शास्त्री को ‘राष्ट्र-विरोधी’ तक कह दिया था। मुझे बीच में दखल देते हुए पत्रकारों को याद दिलाना पड़ा था कि वे भारत के प्रधानमंत्री से बात कर थे। शास्त्री ने कहा कि. उनकी इज्जत पत्रकारों के हाथों में थी। वे जो कुछ भी लिखेंगे उससे भारत का जनमानस तैयार होगा। क्या यह प्रेस कॉन्फ्रेंस उनके दिल पर बोझ बन गई थी?

मैं अपने होटल लौटा तो घोषणा-पत्र पर दोनों नेताओं के हस्ताक्षरों की खुशी में सोवियत सरकार द्वारा आयोजित पार्टी पूरे खुमार पर थी। यह वार्ता उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी थी। पूरी दुनिया की नजरें ताशकन्द पर टिकी हुई थीं और वे इसके विफल होने का खतरा नहीं उठा सकते थे। शराब पानी की तरह वह रही थी और खूबसूरत लड़कियाँ दुभाषियों की भूमिका निभा रही थीं। लेकिन मैं वहाँ ज्यादा नहीं रुक पाया, क्योंकि मुझे सुबह जल्दी उठना था। शास्त्री का विमान सुबह 7.00 बजे रवाना होनेवाला था।

उस रात न जाने क्यों मुझे शास्त्री की मौत का पूर्वाभास हो गया था। किसी ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी तो मैं शास्त्री की मौत का ही सपना देख रहा था। मैं हड़बड़ाकर उठा और दरवाजे की तरफ लपका। बाहर कॉरिडोर में खड़ी एक महिला ने मुझे बताया, “आपके प्रधानमंत्री मर रहे हैं।” मैंने झट से कपड़े पहने और एक भारतीय अधिकारी के साथ कार में शास्त्री के आवास की तरफ चल पड़ा, जो थोड़ी दूरी पर था।

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