फिल्म इंडस्ट्री बॉलीवुड के लिए दिल्ली का हमेशा खास स्थान रहा है। दिल वालों की दिल्ली बॉलीवुड (Delhi films ) के लिए भी दिलचस्प साबित हुई है। दिल्ली (delhi) के थियेटर (cinema halls) और फिल्म के चाहने वाले हमेशा बॉलीवुड के चकाचौंध भरे सफर में हमसफर बन कर साथ देती आ रहे हैं। राजधानी में फिल्मों का सफर चलचित्र से जो शुरू हुआ वो सफर सिनेमा टाकीज, ब्लैक एंड वाइट सिनेमा, कलर फिल्मों के साथ आज भी बदस्तूर जारी है। शायद इसलिए यहां करीब 50 फिल्म हॉल खुले। लोगों ने अपने पसंदीदा किरदारों को पर्दे पर रोते, हंसते, लड़ते, नाचते गाते देखा। अभिनेता और अभिनेत्री के अच्छे संवाद पर जम कर सीटियां और तालियां भी बजाई। हालांकि समय के साथ सिंगल स्क्रीन थियेटरों की संख्या घट जरूर गई है लेकिन उसका जादू आज भी बरकरार है। दिल्ली में अब भी बीस से ज्यादा सिंगल स्क्रीन थियेटर चल रहे हैं। मल्टीप्लेक्स के दौर में बेशक सिनेमा थियेटर मालिकों के लिए इन्हें चलाना मुश्किल हो रहा है लेकिन वे अपने जीते जी इसे वजूद में रखना चाहते हैं। एसी के दौर में भी लकड़ी के फर्नीचर, बड़े बड़े पंखे, मंद मंद रौशनी में आज भी फिल्मों देखी जा रही है।
राजकपूर (raj kapoor) की फिल्मों की सबसे पहले रीगल में होता था प्रीमियर
वर्ष 1932 में बन कर तैयार हुआ रीगल सिनेमा (regal cinema cp) का दिल्ली के इतिहास (delhi history) में महत्व है। इसकी सफेद इमारत देख राहगीर भी रुक जाते थे, फिल्मी पोस्टरों को निहारते थे। हॉल में लकड़ी के फर्नीचर, बालकनी बॉक्स और दीवारों पर लगे बड़े- बड़े पंखे और एक 70 एमएम का पर्दा। इस हॉल में आज भी फिल्म 80 रुपए से लेकर 175 रुपए में देखी जा सकती है। कुर्सियों के पीछे छोटे वीआईपी बॉक्स भी हैं, जिसमें आठ कुर्सियां रखी जाती है। सिनेमा हॉल के प्रबंधक रूप लाल घई ने बताते हैं कि राजकपूर और नरगिस इन्हीं बॉक्स में बैठ कर अपनी फिल्में देखा करते थे। राजकपूर (rajkapoor) के लिए रीगल सिनेमा सबसे पसंदीदा फिल्म हॉल हुआ करता था। उनकी सभी फिल्मों का प्रीमियर यहीं हुआ करता था। उन्हें देखने के लिए लोगों की काफी भीड़ उमड़ा करती थी। वो दौर सिनेमा के लिए काफी सुनहरा हुआ करता था। आज फिल्में देखने वाले कम हुए हैं लेकिन लोगों में दीवानगी कम नहीं हुई है। जो हॉल में फिल्म देखने आता है उनकी सीटियों और तालियों की गड़गड़ाहट से ही उसके हिट और फ्लॉप होने का पता चल जाता है। शायद लोगों के चेहरे का वो ही उत्साह देख कर राजकपूर चहक उठते थे। वे बताते हैं कि पहले चार आने से लेकर पौने तीन रुपए तक में टिकट बिका करती थी। उस जमाने में टिकट हाथों पर स्टैंप लगा कर भी दिया जाता था। टिकट के रूप में स्टैंप लगा दिया जाता था।
लिबर्टी सिनेमा में ब्रेड पकौड़े के साथ फिल्म का लुत्फ
करोल बाग (karol bagh) स्थित लिबर्टी सिनेमा (liberty cinema) यूं तो साल 1956 में शुरू हुआ था। लेकिन इसे 1960 में दोबारा रीइनोवेट किया गया। उस समय इसमें एसी हॉल तैयार किया जिसमें बैठ कर सिनेमा देखने की चाह लोगों में इस कदर थी कि वे ब्लैक में टिकट ले कर अंदर जाते थे। लिबर्टी सिनेमा के मालिक राजन गुप्ता बताते हैं कि पहले लोग सिनेमा हॉल में स्नैक्स नहीं ले जा सकते थे, इंटरवेल में लोगों को बाहर कैफिटेरिया में ही खाना पड़ता था, लेकिन यही पर 1960 में यह सुविधा लोगों को दे दी गई। लिबर्टी थियेटर का ब्रेड पकौड़ा भी काफी लोकप्रिय हुआ, जिसे खाने के लिए भी लोग सिनेमा घर में आते थे। उन दिनों लोग फुर्सत में हेमा मालिनी (hema malini), मधुबाला (madhubala), सुनील दत्त (sunil dutt), नर्गिस (nargis) की फिल्में देखा करते थे। उस जमाने में भी फिल्म सितारों के कारण लोग सिनेमाघरों में फिल्म देखने आते थे। धर्मेन्द्र की फिल्में देखने काफी लोग आते थे। चूंकि करोल बाग में काफी पंजाबी रहते हैं तो उनके स्टार कास्ट की फिल्म यहां खूब चलती थी। पहले तो एक फिल्म कई हफ्ते चला करती थी। अब तो दूसरे हफ्ते में ही फिल्में दम तोड़ने लगती है।
70 एमएम के पर्दे ने बदला नजरिया
पहाडड़गंज स्थित शीला फिल्म (paharganj shiela cinema) थियेटर अपने 70 एमएम का पर्दे के लिए मशहूर है। इस हॉल में सिनेमा देखने वाले लोग इसकी खूबी को बताना नहीं भूलते हैं। जैसा 70 एमएम का पर्दा हॉल के अंदर है वैसा ही पर्दा हॉल के बाहर भी है। तमाम फिल्म हालों में शीला थियेटर ने अपने यहां 70 एमएम का पर्दा लगवाया जिसे देखने के लिए दूसरे थियेटर वालों ने भी शीला में पिक्चर देखी थी। शीला में भी फिल्म वाले अपना प्रीमियर करते थे। इस पर्दे की लोकप्रियता के बाद बाकी थियेटर वालों ने भी 70 एमएम का पर्दा लगाया।
गोलचा के डनलप के गद्दों की बात ही कुछ और थी
दरियागंज के सामने गोलचा सिनेमा (daryaganj golcha cinema) आज एक लैंड मार्क बन गया है। जब यह सिनेमा शुरू हुआ था तब लोगों का क्रेज इस थियेटर में सिनेमा देखने के साथ साथ इसकी सीटों पर बैठने का आनंद लिया करते थे। इस फिल्म हॉल के प्रबंधक एन आर सैनी बताते हैं कि साल 1954 में यह हॉल बन कर तैयार हुआ और इसमें सबसे पहली फिल्म देख कबीरा लगी थी। उस दिन लोगों ने देख कबीरा फिल्म देखी थी। इस हॉल के इंटीरियर को राजस्थान के बीकानेर के कालीन से सजाया गया था, जो इतने साल गुजरने के बाद भी बेहद सुंदर दिखाई देता है। ये जगह दरियागंज वालों के लिए सबसे पसंदीदा जगह रही है, लेकिन दिल्ली के बाकी हिस्सों से भी लोग यहां आते थे। बॉलीवुड की कई फिल्मों का प्रीमियर भी यहीं हुआ है। यहां पर मुगलेआजम फिल्म 65 हफ्ते चली थी, जिसके बाद इस स्टार कास्ट मधुबाला, दिलीप कुमार ने यहां के सभी स्टाफ को बोनस दिया था। उस दौर में सिनेमा बनाने वालों से लेकर इसके कद्रदानों में भी अजब-गजब दीवानगी हुआ करती थी। अब तो कई पुराने सिनेमा अब मल्टीप्लेक्स में बदल गए हैं और कई इस राह पर चल पड़े हैं।
डिलाइट शहर का सबसे ऊंचा फिल्म हाल
आसफ अली मार्ग पर बना डिलाइट सिनेमा (delite cinema) अब भी पुराने दिनों की गवाही देता नजर आता है। दिल्ली गेट के नजदीक यह सिनेमा हॉल 1954 में बनकर तैयार हुआ था। उस जमाने में आसफ अली मार्ग पर दीवार हुआ करती थी जिसे हटा कर यहां एक रोड बनाई गई। इस सिनेमा घर के मालिक शशांक रायजादा बताते हैं कि उस जमाने में इस जमीन को छह लाख रुपए में खरीदी गई थी और जब यह हॉल बन कर तैयार हुआ था तो इसमें जवाहर लाल नेहरू (jawaharlal nehru), प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद (rajendra prasad) ने भी यहीं फिल्म देखी। यह सिनेमा हॉल अमिताभ बच्चन (amitabh bacchan) का भी पसंदीदा हॉल रहा है। यहीं पर राजीव गांधी (rajiv gandhi), संजय गांधी (sanjay gandhi)और अमिताभ बच्चन अकसर पिक्चर देखने आते थे। रायजादा बताते हैं कि समय के साथ यहां थोड़े बदलाव किए गए हैं लेकिन हॉल आज भी वैसा ही हैं। कैन्टीन का बड़ा समोसा काफी पसंद किया जाता है। इस सिनेमा में अब एक और हॉल की शुरुआत की गई है जो डिलाइट डायमंड कहा जाता है। यह हॉल किसी मल्टीप्लेक्स के हॉल से कम नहीं है। इंटीरियर दरबार हॉल की तरह बनाया गया है। लकड़ी की नक्काशी के बीच से नीली रौशनी के जगमग होने के साथ एक सुंदर गोलनुमा डोम भी है जिसमें खूबसूरत डिजाइनिंग की गई है। सिनेमा देखने वालों के लिए दरबार हॉल में फिल्म देखने जैसा महसूस होने वाला है।
1939 में शुरू हुआ था मोती सिनेमा
चांदनी चौक स्थित मोती सिनेमा (moti cinema) पर लगी फिल्में इसकी दशा और सूरत को बयां कर देती है। मौजूदा समय में यहां भोजपुरी फिल्में लगाई जा रही हैं। इसके दर्शक चांदनी चौक में काम करने वाले सैंकड़ों लोग हैं जो काम की थकान के बीच इस फिल्म हॉल में अपना मनोरंजन कर लेते हैं। लेकिन यह हमेशा से ऐसा न था। इस फिल्म हॉल के संचालक केरित सी देसाई बताते हैं कि बड़ी बजट की फिल्मों के लिए दर्शक भी पैसा खर्च करना पसंद नहीं करते। बड़े बड़े सिनेमा हॉल में भी हिट फिल्म के दर्शक करीब 70 फीसदी होती है। ऐसे में अगर एवरेज फिल्म हो तो ऑक्येपेंसी 30 -40 प्रतिशत होती है। इस कमाई में फिल्म हॉल वालों के लिए थियेटर चला पाना बेहद मुश्किल काम है। लेकिन फिर भी मोती सिनेमा हॉल अब भी चल रहा है।
बायोस्कोप बदल गया तो, सिनेमा हॉल को भी बदलना होगा
शशांक रायजादा, ऑनररी सचिव, नेशनल एसोसिएशन ऑफ मोशन पिक्चरर्स एंड एक्जीबीटरर्स
बदलाव सभी के लिए जरूरी है और अगर बेहतरी के लिए हो जो लाजमी भी। पहले पुरानी दिल्ली के लोग सिनेमा को बायोस्कोप कहा करते थे, लेकिन वो जमाना अलग था। तब मनोरंजन के लिए सिनेमा हॉल ही सबसे अच्छा जरिया हुआ करता था। लोग ब्लैक में भी टिकट लिया करते थे। लोगों में फिल्में देखने की भी उत्सुकता थी। शायद इसी वजह से वॉल सिटी कहे जाने वाली पुरानी दिल्ली में ही दो दर्जन से ज्यादा सिनेमा हॉल हुआ करते थे, लेकिन अब उनमें से कुछ ही सिनेमा हॉल का अस्तित्व बचा है। जिन लोगों ने लोगों के अनुसार अपने थियेटर में बदलाव किया आज वो अच्छे चल रहे हैं। इसलिए अब पुराने थियेटर भी अपने हॉल में वो सभी सुविधाएं दे रहे हैं, जिनकी दरकार है। डिलाइट सिनेमा लोगों की मांग को देखते हुए अपने हॉल में एक डीलक्स हॉल और बना दिया जिसका इंटीरियर दरबार हॉल जैसा है। लोगों को अगर मल्टीप्लेक्स जैसी सुविधाएं पुराने थियेटर में मिलेगी तो इन थियेटर में भी फिल्म देखने के लिए लोग आएंगे। हॉल में साउंड सिस्टम भी आधुनिक करना होगा। दरअसल, हाल के दिनों में इंटरनेट, पाइरेसी के चलते लोग अब फिल्म हॉल की तरफ कम ही रुख करने लगे। इसके कारण कई सिनेमा हाल बंद हो गए।
सिनेमा के चाहने वालों ने बनाया एसोसिएशन
बेशक मोबाइल में सिनेमा सिमट गया हो लेकिन फिल्म देखने का अलसी मजा बड़े पर्दे पर ही आता है। ऐसी फिल्म के कुछ शौकीनों ने दिल्ली सिने गोअर एसोसिएशन का गठन किया और फेसबुक पेज भी बनाया है। सिनेमा के दीवाने हर हफ्ते इन्हीं हॉलों में फिल्में देखते है और अपनी प्रतिक्रिया इस पर लिखते हैं।