इन्होंने धर्म और देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। संगीत की जनक भी थी और संरक्षणकर्ता भी। सिर्फ शास्त्रीय संगीत ही क्यों जायकों से लेकर आभूषण, फैशन, हेयर स्टाइल तक को इन्होंने नया आयाम दिया। इतिहास के पन्नों में इनका नाम दर्ज तो स्वर्णिम अक्षरों से होना चाहिए था लेकिन इसे पुरूषवादी मानसिकता कहें या फिर लैंगिक भेदभाव कि आप इन्हें ढूंढ नहीं सकते। यही नहीं, इन्हें समाज में अस्पृश्य ही समझ लिया गया। 16 से 20 शताब्दी की ऐसी ही तवायफ (Tawaif), बाइजी, गायिका और नृत्यांगनाओं की जिंदगी के पन्ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक कार्यक्रम के दाैरान पलटे गए थे।

पहले नंबर पर नृत्यांगनाएं

प्रोफेसर वीना कहतीं हैं कि 1862 में सर्वाधिक इन्कम टैक्स और प्रापर्टी टैक्स देने वालों की कैटेगरी बनाई गई। आपको जानकर हैरानी होगी कि आभूषण विक्रेता दूसरे नंबर पर थे। जबकि पहले नंबर पर नृत्यांगनाएं थी। तीसरे नंबर पर इनका नृत्य-संगीत देखने वाले दर्शक होते थे। ये शहरी, ग्रामीण इलाकों में मकान समेत फैक्ट्रियों की मालकिन भी होती थी। सवई एवं मेवाड़ का कारखाना उदाहरण है। डॉ लता सिंह ने कहा कि नृत्यांगनाओं के बारे में इतिहास नदारद है। जबकि बहुत से प्रसिद्ध शख्सियतों ने इनकी राजनीतिक प्रभुता के बारे में लिखा है। खुद, वीर सावरकर ने नृत्यांगना अजीजन बाई के बारे में लिखा। जो कोठे पर अंग्रेज सिपाहियों के लिए गाने जरूर गाती थी लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों संग बैठके भी करती थी।

एक जून 1857 को क्रांतिकारियों ने कानपुर में एक बैठक की, इसमें नाना साहब, तात्यां टोपे के साथ सूबेदार टीका सिंह, शमसुद्दीन खां और अजीमुल्ला खां के अलावा अजीजन बाई ने भी हिस्सा लिया। यहां गंगाजल को साक्षी मानकर इन सबने अंग्रेजों की हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। विनायक दामोदर सावरकर (vinayak damodar savarkar) ने अजीजन की तारीफ करते हुए लिखा है, अजीजन एक नर्तकी थी परंतु सिपाहियों को उससे बेहद स्नेह था। उनके मुख पर भृकुटी का तनाव युद्ध से भागकर आए हुए कायर सिपाहियों को पुन: रणक्षेत्र की ओर भेज देता था। इसी तरह बेगम समरु की भी कहानी काफी प्रेरक है। अमृतलाल नागर की किताब ये कोठेवालियां में तवायफों की जिंदगी को नजदीक से जाना जा सकता है। गांधी के मूवमेंट में हुस्नबाई, विद्याधारीबाई ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी किताबों में इनका संघर्ष नहीं झलका।

गायिका मल्लिका पुखराज जम्मू से लाहौर चली गई। जब एक राष्ट्र की परिकल्पना की जा रही है तो तवायफों, बाइजी का जिक्र जरुर होना चाहिए। क्यों कि यही वो औरतें है जिन्होंने भक्ति कलाम, देशभक्ति की भावनाओं काे प्रबल किया। तवायफों में मुस्लिम और हिंदु भी होती थी लेकिन उनके लिए देश पहले था। वीना ने कहा कि उन्होंने करीब 35 तवायफों का इंटरव्यू कर उनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश की। एक इंटरव्यू के दौरान तवायफ के कमरे में कृष्ण की तस्वीर देख पूछ बैंठी की क्या तुम एक हिंदु हो? वह बोली- नहीं। लेकिन नृत्य के दौरान कृष्ण की एक झलक जोश का संचार कर देती है।

गायिका गौहर जान को कौन भूल सकता है जिन्होंने लिखा कि–

मदीना में हजरत ने मनाई होली।।

यदि इन गानों और इनके अंदर छिपे संदेशों को देखे तो पता चलता है कि इनके लिए देश पहली प्राथमिकता थी। रसूलन बाई का यहां जिक्र करना जरुरी है। वीना कहती हैं कि कुजीन आफ लखनऊ भी एक तवायफ की ही खोज है। सिर्फ कुजीन ही क्यों, फैशन, हेयर स्टाइल, जूलरी का चलन भी इन्हीं से हुआ। तवायफों के कोठों की रौनक के पीछे उनकी जिंदगी का एक गमगीन खंडहर होता है जिसके मलबे में तवायफ बनने की दर्दनाक दास्तां दबी होती है। मिर्जा हादी रुसवा की उमराव जान ऐसी ही एक शोख, दिलकश तवायफ की कहानी है जिसके घुंघरुवों की खनक के पीछे दबा है उसका बदनसीब अतीत।

सन 1981 में मुजफ्फर अली के निर्देशन में बनी फिल्म उमराव जान आज भी दर्शकों के दिलों के करीब है। एक तवायफ के उपर फिल्म बनाने की क्यों सोची? जब यह सवाल पदमश्री मुजफ्फर अली से पूछा गया तो उनका कहना था कि लखनऊ मेरे दिल में है। वालिद की सोच और मां के एहसास की वजह से यह फिल्म यादगार बन गई। मैं अलीगढ़ गया था पढ़ने साइंस लेकिन उदू के प्यार में कुछ इस कदर डूबा कि उमराव जान बनाने की सोच लिया। इसके बाद मेरे इस कारवां में आशा भोसले, खय्याम जुड़ते चले गए। हम सुबह एवं शाम साथ बैठते एवं फिर फिल्म के हर सीन, गाने के बोल पर चर्चा कर उसे दिल से लिखते एवं फिल्माते।

तबायफों को बताया गया हानिकारक

1892 में दक्षिण भारत में एक मूवमेंट शुरू हुआ जिसमें कहा गया कि ये समाज के लिए काफी हानिकारक है। बाद में जब ये उत्तर भारत आया तो यहां और सख्त हो गया। यहां तो यह कहा गया कि बाईजी खड़ी होकर नहीं नाच सकती, सिर्फ बैठकर ही गा-नाच सकती है। यह कलाकारों की जीवटता ही थी कि वो वो बैठकर भी उतनी खूबसूरती से भाव का प्रदर्शन करते हैं। तवायफ कल्चर जिंदा नहीं किया जा सकता, ना चाहिए, लेकिन हमें उसे आर्ट फार्म में मानना जरुर चाहिए। यहां बनारस का जिक्र करना जरूरी है। बनारस अदभूत नगरी है। बना-रस अपने नाम के अनुरूप ही इसमें सभी रस मिले हुए है। बनारस में जो भी तवायफें-बाईजी रही हैं वो बहुत ही उच्च कोटि की गायिका थी। पंडित साजन मिश्र कहते हैं कि हम उस्ताद, गुरू घराने से जरूर है लेकिन हमें यह तहजीब सिखाई जाती थी कि बाईजी का सम्मान करना चाहिए। अपने होश में श्रीमती सिद्धेश्वरी देवी, बड़ी मोती, हुस्नाबाई, नारियल बाजार की मलकाजान, छोटी मोती देवी जी को भी देखा। इन्हें गुरूओं ने अन्य बच्चों की तरह ही शिक्षा दी। हुस्नाबाई को तो सरकार कहकर बुलाते थे। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस जगह गुरू-शिष्य परंपरा इतनी प्रगाढ़ हो वहां तवायफ को अलग करके नहीं देख सकते। हालांकि यह भी सच्चाई है कि बहुत सारे लोगों ने दूर ही रखा। हमारे गुरू जब गंगा से नहाकर लौटते तो इनके इलाके में पूछते हुए निकलते थे।।

वो नाम लेकर बुलाते–का हो टप्पा याद भईल का। ठुमरी क उ लाइन याद बा कि नाहीं।

बड़े बड़े महाराजाओं की कोठियों पर तहजीब सिखाने के लिए बाईजी को भेजा जाता था।

दिल्ली से जुड़ा एक प्रसंग बताते हुए साजन मिश्र कहते हैं कि सिद्धेश्वरी देवी राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती थी। पंडित गोपाल मिश्र भी एडमिट थे। देवी को पैरालाइसिस हुआ था, पूरा लेफ्ट साइड काम नहीं करता था। जाने पर बड़े प्यार से मिलती थी, बोल नहीं पाती थी। लेकिन लड़खड़ाते हुए कहती हैं कि–करे उ बंदिश याद है। यदि हम सुना देते तो वो आंचल में बंधा एक रुपया निकाल कर हमें दे देती थी और कहती कि जा कुछ खा लिह। पंडित साजन मिश्र ने कहा कि उस्तद, पंडित का जिक्र तो इतिहास में मिलता है लेकिन इन बाईजी पर खामोशी है, जो नहीं होनी चाहिए।

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