शांत माहौल, मंद गति से बहती हवाएं, दीवारों के अवशेष तो कहीं बावली जो कहानी सुनाती है एक समृद्ध शहर की। शहर..तुगलकाबाद की। जिसके बनने की कहानी जितनी दिलचस्प थी उतनी ही शासकों की कारगुजारियां भी। तुगलक वंश की नींव भी इसी शहर से पड़ी थी। समय के कालचक्र में दिल्ली पर अनके शासकों ने हुकूमत किया, जो समय-समय पर बदलती रही। हुकूमत की इसी कड़ी में एक दौर ऐसा भी आया जब भारत में इस्लामिक स्थापत्य शैली का विकास हुआ, जिसे दिल्ली सल्तनत काल कहा गया। सल्तनत काल में पांच अलग अलग वंश मामलूक या ग़ुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद और लोदी वंश ने शासन किया। आज हम इन्हीं में से एक तुगलक वंश द्वारा बनवाए तुगलकाबाद किले एवं उनके इतिहास से हम आपको रूबरू कराएंगे।

दिल्ली सल्तनत

इतिहासकार कहते हैं कि दिल्ली सल्तनत की नींव 1206 ईसवी में अफगानिस्तान के शासक मोहम्मद गोरी ने रखी। उसने अपने मशहूर गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को यहां कामकाज देखने के लिए नियुक्त किया था। गोरी की मौत के बाद तुर्की मूल के कुतुबुद्दीन ऐबक ने यहां गुलाम वंश की स्थापना की और अपने आप को दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान घोषित कर लिया। कुतुबुद्दीन ऐबक का साम्राच्य मध्य भारत से पूरे उत्तर भारत तक फैला हुआ था। वहीं खिलजी वंश ने अपनी विस्तारवादी नीतियों के तहत दक्षिण भारत की ओर अपना साम्राच्य विस्तार शुरू कर दिया। सल्तनत की कमर 1398 ई. में तैमूर के आक्रमण ने तोड़ दी। इसके बाद 1526 ई. में अपनी आखिरी सांसें गिन रही दिल्ली सल्तनत पानीपत की लड़ाई के साथ ही ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। इस भीषण युद्ध में बाबर ने लोधी को हराकर भारत पर मुगल साम्राच्य की स्थापना की।

तुगलक वंश का दौर शुरू

सन 1316 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की मौत हो गई। खिलजी का मकबरा दिल्ली में कुतुब मीनार के पास मौजूद है। इसकी मौत के बाद नाम मात्र ही खिलजी वंश चला और सन 1320 तक दिल्ली सल्तनत से उसका भी पूरी तरह से सफाया हो गया। अंतिम खिलजी शासक कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी की उसके प्रधानमंत्री खुसरो शाह ने हत्या कर दी, जो हिंदु धर्म से परिवर्तित एक मुसलमान था। ऐसे में कमजोर पड़ चुकी दिल्ली सल्तनत की गद्दी तुगलक वंश के पहले सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने खुसरो शाह से छीन ली। गयासुद्दीन तुगलक कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी के शासनकाल में उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत का गवर्नर था। गयासुद्दीन तुगलक ने दक्षिण भारत पर विजय पाने के लिए अपने पुत्र जौना खां जिसे बाद में मुहम्मद बिन तुगलक कहा जाने लगा, को भेजा। उसने वारंगल, मदुरा राच्यों को जीत लिया और इस तरह दिल्ली सल्तनत का साम्राच्य दक्षिण भारत तक फैल गया।

कहानी तुगलकाबाद किले की

सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने 1321 में तुगलकाबाद शहर का निर्माण शुरू करवाया था। यह निर्माण काफी तेज गति से हुआ था। सर सैय्यद अहमद लिखते हैं कि सिर्फ दो साल के अंदर किला बनकर तैयार हो गया। प्रख्यात लेखक वशीरुद्दीन अहमद लिखते हैं कि वो शांत, सुखमय माहौल वाले इलाके में पैदल टहलना ज्यादा पसंद करते थे बजाय बैलगाड़ी की सवारी के। कारण, सड़के काफी उबड़ खाबड़ थी। वह सड़क किनारे सौ बात का गुंबद का भी जिक्र करते हैं। हालांकि अब यह स्मारक मौजूद नहीं है।

राना सफवी कहती हैं कि तुगलकाबाद किले के बनने के पीछे की कहानी बहुत ही दिलचस्प है। गाजी मलिक, खिलजी सल्तनत का अजेय जनरल था। यह तुर्क पिता और जाट हिंदू महिला की संतान था। अपनी असीमित क्षमता के चलते मलिक को प्रोविंसियल गर्वनर बनाया गया। सुल्तान अलाउद्दीन खिलती की मौत के बाद सल्तनत खतरे में था। सुल्तान कुतुब-उद-दीन मुबारक शाह अपने पिता सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की जगह गद्दी पर बैठा। हालांकि एक साल के अंदर ही खुसरो खान ने गद्दी से हटा दिया एवं खुद सुल्तान नसीरुद्दीन खुसरो शाह के नाम से गद्दी पर बैठा। हालांकि वह बहुत ही थोड़े समय के लिए रहा। गाजी मलिक ने इसे परास्त कर सत्ता पर कब्जा किया और तुगलक सल्तनत की स्थापना हुई। एक बार वह सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के बेटे सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारकशाह के साथ वर्तमान तुगलकाबाद इलाके की तरफ आया था। यहां के माहौल ने उसे इस कदर प्रभावित किया कि उसने किला बनवाने की बात कह डाली। इस पर सुल्तान के बेटे ने कहा कि जब सुल्तान बनना तो बनाना।

निजामुद्दीन औलिया

तुगलकाबाद किला बनने की कहानी हजरत निजामुद्दीन औलिया के जिक्र के बिना अधूरी है। औलिया लोकप्रिय संत थे जो सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के समकालीन थे। औलिया अमीर एवं गरीब के बीच किसी तरह का फर्क नहीं करते थे। उनके यहां प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में लोग खाना खाते थे। राना सफवी अपनी पुस्तक द फॉरगटन सिटी आफ दिल्ली में लिखती है कि जब खुसरो खान सुल्तान था तो उसने आर्शिवाद पाने की लालसा में पांच लाख रुपये औलिया को दिए थे। संत ने रुपये तो ले लिए लेकिन दिन ढलने से पहले ही गरीब और जरुरतमंदों में बांट दिया। खैर, जब गयासुद्दीन तुगलक गद्दी पर बैठा तो उसने आदेश जारी किया कि पिछले सुल्तान द्वारा लोगों को दी गई धनराशि, पदवी वापस करनी पड़ेगी। हजरत निजामुद्दीन औलिया ने जवाब दिया कि उन्होंने पैसा खर्च कर दिया है। लिहाजा लौटाने में असमर्थ हैं। सुल्तान यह सुनकर नाराज हो गया। इसी समय औलिया ने एक बावली का निर्माण शुरू करवाया। तुगलकाबाद किले का निर्माण भी जोर शोर से हो रहा था। औलिया के प्रति श्रद्धा का ही परिणाम था कि मजदूरों ने पहले बावली बनाने का निर्णय लिया। इस पर सुल्तान की नजरें टेढ़ी हो गई। सुल्तान ने आदेश दिया कि कहीं किसी तरह का निर्माण नहीं होगा, सभी रिसोर्स किले के निर्माण में उपयोग लाए जाएं। खैर, मजदूरों ने हार नहीं मानी और दिन में किला एवं रात में बावली निर्माण करने लगे। इस पर सुल्तान ने किरोसीन तेल की बिक्री पर ही रोक लगा दी। मकसद था कि जब तेल नहीं होगा तो रात में लालटेन वगैरह जल नहीं पाएंगे एवं काम रूक जाएगा। किताब की मानें तो लालटेन में पानी डाला गया तो चमत्कारिक रूप से तेल में बदल गया। ऐसा कहा जाता है कि औलिया ने किले को शाप दिया कि-

या रहे उजाड़

या बसे गुर्जर

शहर के दरवाजे

राना सफवी लिखती हैं कि किले की दीवारें काफी मोटी है। दक्षिणी दीवारें 40 फीट तक उंची है। इसमें बीच-बीच में झरोखे हैं जो सैनिकों को तीर चलाने के लिए बनाए गए थे। यहां कई दीवारें 90 फीट तक उंची थी। सर सैय्यद ने लिखा है कि किले के मध्य में सुल्तान का बैठक था जिसे जहांनुमा कहते थे। तुगलकाबाद शहर में 56 कोट और 52 दरवाजे थे। वर्तमान में दरवाजों का पता लगाना बहुत मुश्किल है। 13 दरवाजों की जानकारी मिलती है।

-दिल्ली दरवाजा, नीमवाला दरवाजा, धोबन दरवाजा (पश्चिम की तरफ )

-चकला खाना दरवाजा (उत्तर)

-भाटी दरवाजा, रावल दरवाजा, बिंडोली दरवाजा (पूर्व )

-अंधेरिया दरवाजा, हाथी दरवाजा (दक्षिण की तरफ)

-खिड़की दरवाजा, होदी दरवाजा, लाल घंटी दरवाजा, तहखाना दरवाजा, तलाकी दरवाजा आदि।

इन दरवाजों के अवशेष आदिलाबाद किले से देखे जा सकते हैं। विगत वर्षो में यहां अकेले जाने को लेकर भी लोगों में खौफ था। कारण, यहां जानवर घुमते थे। जोसफ डेविड ने इन किले के खंडहरों के आधार पर शहर की बिल्डिंग संरचना का खाका खींचने की कोशिश की और लिखा कि किले में एक तीसरा मकान भी था जो छोटे-छोटे भवनों से घिरा था। यह संभवत : सुल्तान का प्राइवेट हाउस था। कहते हैं, यह कहना मुश्किल है कि राजा एक छोटे स्थान पर कैसे रहते थे। लेकिन तथ्य इसी तरफ इशारा करते हैं। यहां किले में बड़े मैदान, मस्जिद भी थे। यहां अंडरग्राउंड अपार्टमेंट भी थे जो 30 फीट से ज्यादा गहरे थे। अंदर एक शेर मंडल होता था जो किले की सबसे उंची जगह होती थी। यहां से पूरा शहर दिखता था। सुल्तान गयासुद्दीन भी यहां से शहर देखते थे। यहीं एक सौ फीट से अधिक गहरी बावली भी बनवाई गई थी। इसके निर्माण पर भारी भरकम राशि एवं श्रम व्यय हुआ। यह इतनी गहरी थी कि पूरे शहर को एकमात्र बावली से पानी की आपूर्ति हो जाती लेकिन पानी खारा होने की वजह से उपयोग में नहीं लायी जा सकी। किले के पास भी एक झील था जो सैनिकों के लिए बनाया गया था। हालांकि अब इसके अवशेष नहीं दिखते हैं। किले में कुल सात झील और तीन बावली होती थी। वर्तमान में सिर्फ दो बावली दिखती है।

दिल्ली अभी दूर है

सुल्तान गयासुद्दीन इतिहास में एक बहादुर सुल्तान के रूप में जाना जाता है जिसने मंगोलों को कई बार परास्त किया। बंगाल में विजयी अभियान शुरू होने के बाद सुल्तान दिल्ली से 6 किलोमीटर दूर अफगानपुर में रुका था। यहां उसके स्वागत के लिए एक लकड़ी का महल बनवाया गया था। लकड़ी का यह महल रिकार्ड तीन दिन के अंदर बना था। लेकिन सुल्तान के रिसेप्शन के बाद यह अचानक भरभराकर गिर गई। इस पर कई इतिहासकारों के भिन्न भिन्न मत है। इब्न बतूता ने लिखा है कि इस पर प्रश्नचिन्ह है। कहा जाता है कि प्रिंस जूना खान ने हाथियों के परेड की इजाजत ली थी। उसने परेड से पहले अपने दोस्तों को टेंट छोड़कर चले जाने को कहा था। सुल्तान का फेवरिट बेटा महमूद भी उनके साथ था। हाथियां जैसे ही गुजरीं, छत गिर गई। सुल्तान ने अपने हाथ से बेटे को ढंक लिया और उसकी जान बच गई। इसके पीछे की कहानी भी काफी दिलचस्प है। दरअसल, बंगाल यात्रा पर निकलने से पहले गयासुद्दीन ने निजामुद्दीन औलिया से कहा था कि उसके दिल्ली आने से पहले वो दिल्ली छोड़ दें। दरअसल, उसे पता चला कि मुहम्मद बिन तुगलक निजामुद्दीन औलिया का शिष्य बन गया था और निजामुद्दीन ने उसके सुल्तान बनने की भविष्यवाणी कर दी थी। ये बात पता चलने पर गयासुद्दीन तुगलक ने निजामुद्दीन को दिल्ली छोड़ने का हुक्म दे दिया। असल में गयासुद्दीन इस बात से घबरा गया था उसे डर था कि कहीं बिन तुगलक गद्दी के लालच में उसकी हत्या न करवा दे। सुल्तान के अफगानपुर पहुंचने पर औलिया के शुभचिंतकों ने उनसे दिल्ली छोड़ने की गुजारिश भी कि, जिस पर उन्होंने कहा कि–

हुनूज दिल्ली दूर अस्त।

इसके बाद जूना खां गद्दी पर बैठा। सुल्तान को उसी के द्वारा बनवाए गए मकबरे में दफनाया गया। यह मकबरा कई मायनों में बेहद खास है। इसमें पहली बार लाल बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था। शीर्ष पर कलश भी पहली बार लगाया गया था। इस मकबरे को दारुल अल अमन भी कहकर बुलाया जाता है।

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