1857 की क्रांति: 1862 में हैरियट टाइटलर अपने पति के साथ भयानक ब्रिटिश कैदखाने अंडमान चली गई, जहां वह सुप्रिंटेंडेंट नियुक्त हुए थे। हैरियट को ‘पहले ही दिन से उस जगह से नफरत हो गई’, हालांकि वहां उसे आज भी द्वीप समूह की सबसे ऊंची पहाड़ी ‘हैरियट पहाड़’ के नाम से याद किया जाता है। वहां इस दंपती ने बहुत कोशिश की कि जेल में मरने वालों की तादाद कम कर सकें, जो उस समय सात सौ सालाना थी–हालांकि उन्हें इसमें बहुत सफलता नहीं मिल सकी।
बहुत से कैदी वहां के जंगलों की नम और अस्वस्थ जलवायु की वजह से आने के कुछ हफ़्तों नहीं तो कुछ महीनों में ही मर जाते थे। एक बार दस हजार कैदियों में सिर्फ पैंतालीस कैदियों को खुद जेल के डॉक्टर ने ‘फिट’ घोषित किया था। यहां भेजे गए कैदियों की बड़ी तादाद दिल्ली से थी। अगर गदर के दौरान किसी ने बादशाह को एक अर्जी भी लिखी हो, तो वह उसे काले पानी की सजा मिलने के लिए काफी थी।
उन कैदियों में एक मिर्जा गालिब के सबसे जहीन और काबिल दोस्त फजले हक भी थे, जो शायर और बुद्धिजीवी थे। फजल मूल रूप से ऑक्टरलोनी के चेले थे, जिनके साथ गालिब अक्सर शतरंज खेला करते थे। उन पर इल्जाम लगाया गया कि उन्होंने दिल्ली के मुसलमानों को अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद पर उकसाया, जिसका अदालत में इंकार करने से उन्होंने मना कर दिया, हालांकि उनसे कहा गया था कि अगर वह इससे इंकार कर दें तो उन्हें माफी मिल जाएगी।
उनकी रिहाई के आदेश आने से कुछ ही पहले उनका इंतकाल हो गया। रॉबर्ट टाइटलर की एक दशक बाद 1872 में मृत्यु हो गई। हैरियट ब्रिटिश कोलंबिया चली गई, जहां वह कुछ समय अपनी बेटी के पास रही, लेकिन फिर वह भारत वापस आ गई और शिमला में रहने लगी, जहां उसने अपने संस्मरण लिखे और 1907 में उनासी साल की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई। इससे 14 सितंबर को शुरू होने वाले हमले के बाद से अंग्रेजों के बर्ताव पर उसकी नाराजगी स्पष्ट हो गई। वह लिखती है: “दिल्ली अब वाकई लाशों का शहर है। यहां की मौत जैसी खामोशी बहुत तकलीफदेह है। यहां सिर्फ खाली घर दिखाई देते हैं… मुकम्मल स्थिरता… (यह सब) इतना गमनाक है कि बयान से बाहर है। ऐसा लगता है, जैसे हमारी जिंदगी से कोई चीज चली गई है।