1857 की क्रांति का सूत्रपात हो चुका था। विद्रोही दिल्ली में दाखिल हो गए थे। उनके रास्ते में जो कोई भी आता वो हटाते जाते। खासकर यदि वो अंग्रेजी प्रशासन से संबंधित था, वह बागियों के निशाने पर था, जैसे बेतहाशा मोटे जीवनलाल जो ब्रिटिश रेज़िडेंसी के हेड मुंशी थे। वह पहले तो अपने अंग्रेज़ मालिकों के लिए जो कुछ भी कर सकते थे करते रहे। फिर जब उन्होंने सुना कि उनके दोस्तों यानी ब्रिटिश अफसरों को ढूंढकर एक-एक करके मार दिया गया तो वह दुख से रोने लगे कि वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। फिर उनको अहसास हुआ कि उनकी अपनी सलामती भी ख़तरे में है । वह लिखते हैं:

मैं काफी मोटे जिस्म का था, इसलिए मुझे आसानी से पहजाना जा सकता था। इसलिए मेरे छुपने की कोई जगह नहीं थी। सारे बदमाश, सिपाहियों को अंग्रेज़ों के घरों और उनके दोस्तों और अमीर लोगों के नाम-पते बता रहे थे। फिर किसी ने मुझे बताया कि एक बदमाश ने सिपाहियों को मेरा नाम भी बता दिया कि मैं अंग्रेज़ों का मीर मुंशी हूं। मारे डर के मैंने अपने घर के दरवाज़ों पर ताले लगवा दिये। मेरा घर चौदहवीं सदी में फिरोज़शाह तुगलक के ज़माने का ठोस पत्थरों का बना हुआ था। हमने सब खिड़कियां और दरवाज़े बंद कर दिए। मेरा सारा खानदान नीचे तहखानों में चला गया और सभी वहीं छिपे बैठे रहे। मैंने सारे नौकरों को घर के आगे-पीछे निगरानी पर लगा दिया और आदेश दिया कि किसी को दाखिल होने ना दें। सारे शहर में ख़ौफ़ फैला था, सब दुकानें और मकान बंद थे और उनके मालिक अंदर बैठे ईश्वर से रहम और सुरक्षा की दुआएं कर रहे थे।

बहुत से लोग सिर्फ इसलिए लूटे गए क्योंकि वह अमीर थे। सबसे पहले दिल्ली के अमीर और अलोकप्रिय जैन और मारवाड़ी साहूकारों की बारी आई। हालांकि उनका अंग्रेज़ हुकूमत से सीधे तौर पर कोई वास्ता नहीं था । जैसे ही सिपाही दिल्ली में दाखिल हुए, सबसे पहले उन्होंने बैंक के पार्टनरों सालिगराम और मथुरा दास को अपना निशाना बनाया। तिलंगों ने पहले सालिगराम के घर पर लूटने के इरादे से हमला किया। लेकिन वह दरवाज़े के पेच नहीं खोल पाए। वह दिनभर कोशिश करते रहे और आखिर आधी रात को उनके घर में घुस गए और सब कुछ लूट लिया।  उन दोनों ने कुछ पहले किले की नाराज़गी मोल ली थी क्योंकि उन्होंने अपना कर्ज वसूलने के लिए शहजादा मिर्ज़ा शाहरुख को गिरफ्तार करवा दिया था। उन्होंने मजबूर होकर ज़फ़र के सामने आकर अपनी सुरक्षा के लिए मिन्नत करनी पड़ी। “आपके सेवक का घर लुट गया है और उसका सारा साजो-सामान छीन लिया गया है। हमारी तमाम हुंडियां और कारोबार के कागज़ तहस-नहस हो गए हैं। अब हमें रोज़मर्रा की जिंदगी के लिए सामान जमा करने में भी बहुत मुश्किल है।

दूसरे लोगों को भी, जो सालिगराम की तरह अमीर नहीं थे, ऐसी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। पुलिस प्रमुख सईद मुबारक शाह के बयान के मुताबिक, “सिपाहियों और सवारों के कई दस्ते और शहर के बहुत से गुंडे-बदमाश चारों तरफ़ घूम रहे थे और ख़ूब लूटमार मचा रहे थे और शहर के इज़्ज़तदार लोगों से बदतमीज़ी कर रहे थे। इसी हंगामे में आठ रंघोरियों (मुसलमान राजपूत) ने जो सराय में ठहरे थे, कुछ डाकुओं और बदमाशों को इकट्ठा करके शहर के एक हिस्से में आग लगा दी और फिर अपने ऊंटों पर सोने की मोहरें, ज़ेवरात और दूसरी कीमती चीजें लादकर अपने गांव की ओर चल दिये। यह लूटमार पूरे दिन और रात भर जारी रही।

जल्द ही शहर की सारी अमीर हवेलियों के दरवाज़े तोड़ दिए गए और उनका सब सामान इस बहाने लूट लिया गया कि वह ईसाइयों को पनाह दे रहे हैं। मुफ्ती सद्रुद्दीन ने अपनी एक निजी फ़ौज जमा की ताकि वह अपनी और अपने दोस्तों की सुरक्षा कर सकें। उन्होंने सिपाहियों से लड़ने को उन दिल्ली वालों को भर्ती किया जिनके पास कुछ अस्लहा था और थोड़ी बहुत फ़ौजी ट्रेनिंग भी थी। यह सब मुजाहिदीन के खुफिया नेटवर्क के जिहादी थे, जिन्होंने अपने अमीर (लीडर) के हाथ पर बैअत (वफादारी) करके जिहाद की कसम खाई थी। अब वह खुलकर सामने आ गए थे और उस जिहाद के लिए तैयार थे जिसके वह ख्वाब देखते थे। यह जिहाद दिल्ली की बगावत का एक अहम हिस्सा थे, और हालांकि वह बाग़ी सिपाहियों के साथ लड़ाई में शामिल थे लेकिन उनसे बिल्कुल अलग और स्वतंत्र थे।

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