purana qila

(मुगल काल : 1526-1857 ई.)

अल्तमश के समय से इब्राहीम लोदी के जमाने तक मुगल हिंदुस्तान पर निगाहें गडाए रखे। वे बराबर इस मुल्क पर हमले करते रहे, मगर यहां वे लूटमार मचाने ही आते थे, राज्य कायम करने नहीं। उनका उद्देश्य धन संचय करना था। अमीर तैमूर ने महमूद शाह को पराजित करके दिल्ली पर कब्जा कर लिया, मगर वह भी चंद महीने यहां ठहरकर और मुल्क को खस्ता हालत में छोड़कर चलता बना। आखिर में लोदियों ने हालात पर काबू पाने की कोशिश की, मगर वे अपने आपसी घरेलू झगड़ों में ऐसे फंसे कि उनमें से एक ने बाबर को अपनी मदद के लिए बुला भेजा। बाबर ने इब्राहीम को पराजित करके दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार पठानों की सल्तनत का अंत हुआ। मुगलों को भी – शुरू-शुरू में बहुत परेशानियां उठानी पड़ीं। मगर इस बार वे हुकूमत करने के ख्याल से ही आए थे। इसलिए वे सब कठिनाइयों को पार करके अंत में विजयी हुए और 1857 ई. तक बराबर मुगल खानदान दिल्ली की बादशाहत करता रहा, जब आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह अंग्रेजों का कैदी बना और ब्रिटिश हुकूमत कायम हुई।

मुगलों का पहला बादशाह बाबर (1526-1530 ई.) इब्राहीम लोदी पर विजय पाकर बाबर 1526 ई. में दिल्ली के तख्त पर बैठा, मगर यहां चंद रोज ठहरकर आगरा चला गया और वहां से फिर दिल्ली नहीं आया। उसकी मृत्यु संभल मुकाम पर 1530 ई. में हो गई। दिल्ली उसने अपनी कोई यादगार नहीं छोड़ी।

हुमायूं (1530-56 ई.)

1530 ई. से 1540 ई. तक हुमायूँ हिंदुस्तान में रहा। यह शुरू में तो पृथ्वीराज की दिल्ली में रहता रहा, मगर बाद में पुराने किले में इसने दीनपनाह बनानी शुरू की।

पुराने किले का विवरण इस प्रकार है।

दीनपनाह (पुराना किला) :

पुराना किला किसने बनवाया, इसके बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ का तो कहना है कि मौजूदा किला हुमायूँ ने बनवाया, कुछ का कहना है कि महाराजा अनंगपाल ने विक्रम संवत 440 में इसे बनवाया और इंदरपत नाम रखा। यह भी कहा जाता है कि इसके बनवाए किले का नामोनिशान बाकी नहीं रहा। शायद हुमायूँ के समय तक कुछ निशान बाकी रहा हो। कुछ एक का कहना है कि यह किला पांडवों का इंद्रप्रस्थ ही है, जिसका नाम इंदरपत बिगड़कर पड़ा और जिसका नाम पुराना किला चला आ रहा है। हुमायूँ ने उसी पुरानी किले की महज मरम्मत करवाकर इसका नाम ‘दीनपनाह’ रख दिया था, मगर सिवा चंद मुसलमानों के, और सब इसे ‘इंदरपत’ या ‘पुराना किला’ ही कहते आए हैं और इसमें मुसलमानों के जमाने की इमारतों को छोड़कर बाकी की इमारतें पांडवों के समय की हैं।

अधिकतर राय यह है कि किले की दीवारें और दरवाजे तो हुमायूँ ने बनवाए और अंदर की इमारतें शेरशाह सूरी के समय में बनीं जो पठान कारीगरी की परिचायक हैं। किला पांडवों के काल का होने के प्रमाण में वे यह कहते हैं कि किले में जो मस्जिद है, वह 172 फुट लंबी, 56 फुट चौड़ी और 52 फुट ऊंची है; उसके पांच दर हैं। इसको यदि गौर से देखें तो प्रतीत होगा कि यह मंदिर था।

मस्जिद के ठीक दक्षिण में एक अठपहलू इमारत शेरमंडल के नाम की है। वह मंदिर के संबंध की वेदी रही होगी क्योंकि (1) वह मंदिर के दक्षिण में है, (2) वह काफी ऊंची है, फिर भी बुनियाद बहुत पक्की नहीं हैं, (3) यद्यपि इसके दरवाजे चार दिखाई देते हैं लेकिन वास्तव में पांच थे, जो पांडवों के नाम पर थे, (4) इस स्थान के मध्य में सहन नहीं है, क्योंकि हवन कुंड में सहन की जरूरत नहीं होती, और (5) इसका ऊपर का भाग धुआं निकलने के लिए खुला रखा गया था, जो बाद में बंद कर दिया गया है। संभव है कि इस स्थान का नाम सूर्यमंडल रहा हो, क्योंकि पांडव सूर्य भगवान की आराधना किया करते थे।

सूरज का मंदिर होता भी अठपहलू है। इस बात का एक प्रमाण यह भी है कि घोड़ा सूरज की सवारी है। हर देवता का अपना वाहन होता है- शिव का नंदी, देवी का शेर; इसी प्रकार सूरज का घोड़ा। दरवाजे पर दोनों तरफ एक-एक सफेद घोड़ा बना है। मुमकिन है, पहले सात घोड़े कहीं न कहीं बने हों। मगर मस्जिद के मंदिर होने और शेरमंडल होने का कोई खास प्रमाण नहीं है। यह केवल अनुमान है।

इस किले की बाबत अधिकतर राय तो यहीं है कि इसे हुमायूं ने बनवाया। हुमायूं नामा में इस किले के संबंध में यूं लिखा है- ‘इस बादशाह के कारनामों में दीनपनाह की तामीर करवाना भी था। पहले उसने अपने विद्वान साथियों से सलाह की और दिल्ली शहर के नजदीक एक शहर बसाने का निश्चय किया, जिसका नाम दीनपनाह रखा गया। सबने इससे इत्तफाक किया और एक ने कहा- ‘शाह बादशाह दीनपनाह, जिसकी तारीख 1533 ई. निकलती है, और इस साल में यदि नगर बन जाए तो बहुत शुभ होगा।’

ग्वालियर से बादशाह आगरा चला गया, वहां से दिल्ली आया और शुभ मुहूर्त देखकर यमुना नदी के किनारे (जहां मौजूदा किला है) शहर से कोई तीन कोस पर दीनपनाह की बुनियाद डालने के लिए स्थान चुना गया। मोहर्रम महीने के मध्य में 1533 ई. की उस शुभ घड़ी में, जिसे नजूमियों ने बताया हुआ था, तमाम दरबारी बादशाह के साथ उस स्थान पर गए और ईश्वर से प्रार्थना की।

सर्वप्रथम बादशाह ने खुद अपने पवित्र हाथ से बुनियाद रखने के लिए एक ईंट रखी और फिर उन सब उमराओं ने एक-एक पत्थर जमीन पर रखा।’ उसी दिन बादशाह के महल में भी उसी मुहूर्त में काम शुरू हो गया। दस महीने के अंदर इसकी फसील, बुर्ज, दरवाजे और दीगर इमारत बनकर खड़ी हो गई। यह सब काम इतने कम समय में हो गया. इसका कारण यह बताया जाता है कि किले के अंदर पहले के मकान मौजूद होंगे, जिनको तोड़कर किला तामीर हुआ।

किला तीन फलांग लंबा और डेढ़ फलगि चौड़ा है। लंबाई पूर्व से पश्चिम को है। तीन दरवाजे हैं- उत्तर और दक्षिण के दरवाजे बहुत काल तक बंद रहे। उत्तरी द्वार को तलाकी दरवाजा कहते थे। इसका कारण यह बताते हैं कि एक बार इस द्वार से फौज लड़ने गई और यह प्रतिज्ञा ली कि बिना विजय प्राप्त किए इस द्वार से नहीं घुसेंगे। विजय हो न सकी और द्वार बंद पड़ा रहा, मगर यह किस राजा के समय में बंद हुआ, इसका पता नहीं चलता। पश्चिमी द्वार सदर द्वार है। उसी से आमदो-रफ्त होती है। तीन खिड़कियां हैं- दो नदी की ओर और तीसरी किले की पश्चिमी दीवार में। शहर के चारों कोनों पर चार बुर्ज थे। कुल बुर्ज सात थे। नदी की ओर की चारदीवारी का ऊपरी भाग टूट गया है। समस्त फसील खारे के पत्थर से बनी हुई है।

इंदरपत उन पांच गांवों में से एक गिना जाता है जो पांडवों ने कौरवों से मांगे थे। बाकी चार थे- (1) तिलपत, मथुरा रोड पर बदरपुर से आगे, (2) सोनीपत, (3) पानीपत, करनाल के रास्ते में, और (4) बागपत जिसका नाम बाघपत था (शाहदरा से होकर तहसील गाजियाबाद में छोटी लाइन पर)। यह भी कहते हैं कि ये सब गांव किसी जमाने में यमुना के पश्चिमी किनारे पर थे और बाद में यमुना का रास्ता बदल गया।

इंदरपंत गांव अथवा दीनपनाह के लिए कहा जाता है कि एक बार यह चारों ओर से पानी से घिर गया था और इसके पश्चिमी दरवाजे के सामने एक पुल है, जिसकी टूटी महराबें अब भी मौजूद हैं। नदी अपने पुराने किनारे से बहुत दूर हट गई है और अब पुराने किले तथा दरिया के बीच की जमीन पर कारत होती है। दरिया की तरफ की दीवारें बहुत कुछ खराब हो चुकी हैं। यदि यह मान लिया जाए कि किले की दीवार का हर एक बुर्ज एक पैवीलियन से घिरा हुआ था तो वे सब गायब हो चुके हैं। जो दरवाजों पर हैं, उनका जिक्र आ चुका है। अब से पचास वर्ष पहले तक इस किले में इंदरपत नाम का एक गांव आबाद था और यहां खेती हुआ करती थी। तब पुरानी इमारतों में से केवल मशहूर जामा मस्जिद, जिसे मस्जिद किला कोहनाह भी कहते थे, और शेरमंडल का बुर्ज ही बाकी था।

 हुमायूं के महल का कोई निशान तक बाकी नहीं था। पुराने जमाने का यहां एक छोटा-सा कुंती का मंदिर बना हुआ है। मंदिर में एक पत्थर की मूर्ति है, जिसमें दो मुख हैं। कहते हैं, एक कुंती का है और दूसरा माद्री का। यह खुदाई में से मिली थी। दिल्ली राजधानी बनने के पश्चात इंदरपत गांव यहां से उठा दिया गया और किले को सुरक्षित स्थान मान लिया गया। इसका तलाकी दरवाजा भी खोल दिया गया। 1947 ई. के सांप्रदायिक बलवे में यहां मुसलमानों को कैंप में रखा गया था, जिन्हें देखने 13 सितंबर 1947 को गांधीजी अंदर गए थे। मुसलमानों के पाकिस्तान चले जाने के बाद यहाँ शरणार्थियों के जिए एक बस्ती बनाकर इसे आबाद कर दिया गया था। पिछले दिनों अभी इसमें खुदाई हुई थी और पुरानी वस्तुएं निकली थीं। अब इस किले को चिड़ियाघर में शामिल कर लिया गया है, जो सुंदर नगर की पुश्त पर बना है। पुराना किला अथवा दीनपनाह मुसलमानों की नौवीं दिल्ली थी। इससे पहले आठ दिल्लियां पठान खानदान वाले बसा चुके थे।

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