सियासी गलियारे की एक नई कहानी लेकर हम हाजिर हैं। एक बार जब नेहरू (jawaharlal nehru) ने शास्त्री (lal bahadur shastri) को सदन का नेता बनाने की कोशिश की तो उन्हें पार्टी के विरोध का सामना करना पड़ा, खासकर मोरारजी देसाई की तरफ से। परिणामस्वरूप नेहरू को इस प्रस्ताव को वापस ले लेना पड़ा। वो मुकाबला करवाने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं उनके जीवन काल में ही पार्टी दो टुकड़ों में न बंट जाए। उन्होंने सदन के नेता के पद के लिए एक अपेक्षाकृत अनजाने से व्यक्ति को चुनकर टकराव की सम्भावना को खत्म कर दिया।

लेकिन इससे शास्त्री को एक झटका-सा लगा था। लेकिन उस दिन उनकी समझ में यह बात आ गई थी कि अगर उन्हें प्रधानमंत्री बनना था तो उन्हें मोरारजी देसाई से कड़ी टक्कर लेनी होगी। कुलदीप नैयर अपनी किताब में लिखते हैं कि शास्त्री अपनी भावनाओं को अपने तक रखने की कला जानते थे, इसलिए उन्होंने कभी भी मोरारजी के प्रति असम्मान प्रकट नहीं किया, न ही उन्होंने अपने-आपको प्रधानमंत्री के पद के दावेदार के रूप में प्रकट किया। फिर भी, वे कांग्रेस के पुराने गुट (जिसे ‘ओल्ड गार्ड’ या ‘सिडिकेट’ के नाम से जाना जाता था) की तरफ कुछ और ज्यादा झुक गए, हालांकि वे अपने-आपको एक निर्गुट और निर्विवाद व्यक्ति के रूप में प्रदर्शित करते रहे।

लेकिन यहां शास्त्री एक बात भूल रहे थे। अगर शास्त्री यह समझते रहे थे कि कैबिनेट में उनकी वापसी प्रधानमंत्री के पद की तरफ एक निश्चित कदम था, तो यह उनकी भूल मात्र थी। जैसे ही नेहरू की तबीयत थोड़ी-सी संभली, सभी महत्त्वपूर्ण फाइलें और कागज सीधे उनके पास जाने लगे। शास्त्री को कई दिनों बाद किसी मुंहलगे उप-सचिव या संयुक्त सचिव के माध्यम से उनके बारे में पता चलता। ये कई बार कहा करते थे, “मैं सिर्फ एक क्लर्क बनकर रह गया हूं।”

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