भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति थे लाल बहादुर शास्त्री
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
एक अद्वितीय देशभक्त, वाक्पटु सांसद, कुशल प्रशासक, यशस्वी राजनेता, निपुण वार्ताकार, निःस्वार्थता और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति, सादगी, सत्यनिष्ठा और शालीनता के देदीप्यमान प्रतीक लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों के मूर्तमान रूप थे। वह एक ऐसी पुण्यात्मा थे जो मन, वचन और कर्म से पूर्णतः सात्विक थे। उनका जीवन वास्तव में एक सतत् यज्ञ के समान था।
लाल बहादुर शास्त्री का जीवन परिचय,
2 अक्तूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में शारदा प्रसाद और राम दुलारी देवी के घर जन्मे लाल बहादुर शास्त्री हरिश्चन्द्र हाई स्कूल में प्रवेश लेने के लिये वाराणसी चले गये जहां उनके अध्यापक, श्री निष्कामेश्वर प्रसाद मिश्र ने उनके व्यक्तित्व को निखारने में अहम भूमिका निभायी और उनमें स्वावलम्बन एवं उत्कृष्ट कर्मठता के बीज बोये।
शास्त्री जी की उपाधि
लाल बहादुर शास्त्री जी ने 1921 में महात्मा गांधी जी के असहयोग आन्दोलन को मजबूत करने के आह्वान में शामिल हुए और स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल होने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी। बाद में उन्होंने काशी विद्यापीठ से अपना अध्ययन पुनः आरम्भ कर दिया। दर्शन तथा मानविकी में उनका अध्ययन पूरा हो जाने पर, लाल बहादुर को “शास्त्री” को उपाधि प्रदान की गयी। उसके बाद तो सारी जनता उन्हें प्यार से ‘शास्त्री जी’ कहने लगी।
समाज के कमजोर वर्ग की सेवा
शास्त्री जी को काशी विद्यापीठ में रहते हुए ही आचार्य जे.बी. कृपलानी, डॉ. भगवान दास, आचार्य नरेन्द्र देव और डॉ. सम्पूर्णानन्द से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वर्ष 1926 में अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात् शास्त्री जी “सर्वेट्स ऑफ द पीपल सोसायटी” के आजीवन सदस्य बन गए तथा उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों के उद्धार के लिए मुजफ्फरनगर में कार्य करना शुरू कर दिया।
विवाह बंधन में बंधे
वर्ष 1928 में शास्त्री जी को सोसायटी के तत्कालीन प्रेजीडेंट, श्री पुरुषोत्तमदास टंडन के सान्निध्य में कार्य करने के लिए इसके मुख्यालय, इलाहाबाद में स्थानान्तरित किया गया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, यह संगठन उनके जीवन का अभिन्न अंग बनता गया। मई 1928 में शास्त्री जी का विवाह मिर्जापुर की ललिता देवी से हो गया।
ढाई साल तक कैद में रहे
स्वतंत्रता संघर्ष दिन-प्रतिदिन तीव्र होता जा रहा था और शास्त्री जी भी इसमें लिप्त होते जा रहे थे। वर्ष 1930 में शास्त्री जी ने नमक सत्याग्रह में अग्रणी भूमिका निभाई और उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए अन्य करों और राजस्व का भुगतान न करने के बारे में लोगों को समझाने के लिए स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दिया। इस कार्य के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और ढाई साल तक कैद में रखा गया।
वर्ष 1937 में शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश संसदीय बोर्ड का संगठन सचिव नियुक्त किया गया। पंडित गोविन्द बल्लभ पंत शास्त्री जी के मन और मस्तिष्क की उत्कृष्ट विशेषताओं, पार्टी कार्य के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा तथा समर्पण से प्रभावित थे और इसी कारण पंत जी ने उन्हें अपना संसदीय सचिव नियुक्त कर लिया।
भूमिगत होना पड़ा
वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 9 अगस्त को सभी महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन किसी तरह शास्त्री जी भूमिगत हो गए और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को गुप्त रूप से निर्देश देते रहे कि किस तरह आगे कार्य करना है।
इस प्रक्रिया और इलाहाबाद शहर में कानून तथा व्यवस्था का उल्लंघन करने हेतु लोगों को प्रोत्साहित करने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। भारत में कैबिनेट मिशन के आगमन की पूर्व संध्या पर अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ उन्हें रिहा कर दिया गया।
पुलिस एवं परिवहन विभाग में क्रांतिकारी सुधार
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश में गृह मंत्री नियुक्त किया गया तथा उन्हें पुलिस एवं परिवहन विभागों का कार्यभार सौंपा गया। उन्होंने दोनों क्षेत्रों में कई सुधार किए। उनका एक महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय प्रयास सड़क परिवहन का राष्ट्रीयकरण करना तथा उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन सेवा शुरू करना था। तथापि, इस क्षेत्र में एक अन्य सुधार बस संवाहक के रूप में महिलाओं की भी नियुक्ति करना था।
कुशल चुनाव प्रबंधक
शास्त्री जी 1951 में राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में उस समय आए जब देश स्वतंत्र भारत के संविधान के अंतर्गत वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रथम आम चुनावों की तैयारी कर रहा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आम चुनावों के लिए कांग्रेस पार्टी के चुनाव प्रबंधक के रूप में शास्त्री जी को चुना और उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव नियुक्त किया। शास्त्री जी ने स्वयं को एक सक्षम एवं कुशल संयोजक सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
रेल मंत्री के पद से दिया इस्तीफा
एक केन्द्रीय मंत्री के रूप में शास्त्री जी का कार्यकाल 1952 में राज्य सभा के लिए निर्वाचित होने के तुरन्त पश्चात् ही शुरू हो गया। शास्त्री जी की निःस्वार्थ सेवाओं से, विशेषकर 1952 के आम चुनावों में, उनकी सेवाओं से प्रभावित होकर पंडित नेहरू ने उन्हें रेल और परिवहन मंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। शास्त्री जी ने रेल प्रणाली की कार्यक्षमता तथा सुरक्षा में सुधार करने हेतु कठिन परिश्रम किया और रेलवे संचालन एवं प्रबन्धन के विविध क्षेत्रों का सक्षम मूल्यांकन करने हेतु विभिन्न रेल सलाहकार बोडों का गठन करने संबंधी विभिन्न उपाय किए।
तथापि, रेल मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल 1956 में उस समय एकाएक समाप्त हो गया जब तमिलनाडु में अरियालुर के निकट एक रेल दुर्घटना में कई लोगों की मृत्यु हो गई। इस दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। संसद द्वारा संसदीय लोकतंत्र को उच्च परम्पराओं के रूप में उनके त्यागपत्र का स्वागत किया गया।
पंडित नेहरू ने की प्रशंसा
शास्त्री जी के उत्तम गुणों तथा बेदाग चरित्र की प्रशंसा करते हुए पंडित नेहरू ने 26 नवम्बर 1956 को लोक सभा में यह टिप्पणी की:
मैं कहना चाहता हूं कि यह मेरा सौभाग्य और विशेषाधिकार है कि लम्बे समय से वह केवल सरकार में ही नहीं बल्कि मेरे साथी और सहयोगी रहे हैं तथा कोई भी व्यक्ति किसी भी संस्था में ऐसे उच्च निष्ठावान, विश्वासपात्र, आदर्शों के प्रति समर्पित, विवेकशील तथा परिश्रमी व्यक्ति से बेहतर साथी तथा सहयोगी की आशा नहीं कर सकता। हम इससे बेहतर आशा नहीं कर सकते हैं और चूंकि वह ऐसे विवेकशील व्यक्ति हैं इसलिए उन्हें सौंपा गया कार्य जब कभी सफल नहीं हो पाता तो उन्हें गहरा दुःख होता है।
असम में लागू हुआ शास्त्री फॉर्मूला
एक वर्ष के भीतर ही शास्त्री जी केन्द्रीय मंत्रिमंडल में पुनः शामिल किये गये तथा 1957 से 1961 तक उन्होंने परिवहन तथा संचार, वाणिज्य एवं उद्योग और पंडित पंत की बीमारी के दौरान गृह मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार भी संभाला।
पंडित पंत की मृत्यु के बाद शास्त्री जी ने गृह मंत्रालय का कार्यभार संभाला और ऐसी अनेक समस्याओं का समाधान किया जिन पर कार्यवाही की जानी थी। गहन विचार-विमर्श के बाद उन्होंने असम राज्य से संबंधित भाषा विवाद का समाधान किया और एक फार्मूला निकाला, जिसे बाद में “शास्त्री फार्मूला” के नाम से जाना गया, जिससे असमवासियों की भावनाओं को शांत करने में मदद मिली।
गैर हिंदी भाषी राज्यों में आंदोलन
इसी तरह, दक्षिण भारत में भी गैर-हिन्दी भाषी राज्यों के लोगों पर हिन्दी थोपने के लिए सरकार के विरुद्ध तीव्र रोष व्याप्त हो गया था। शास्त्री जी ने दक्षिण भारत के लोगों तथा इस मुद्दे पर उनकी चिन्ता के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की और यह आश्वासन दिया कि उनके साथ न्याय किया जायेगा।
अपने वचन को निभाते हुए उन्होंने अप्रैल 1962 में संसद में राजभाषा विधेयक पेश किया जिसमें यह उपबंध था कि जनवरी 1965 के बाद सभी सरकारी प्रयोजनों और संसद के कार्य संचालन में हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी बनी रहेगी। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि हमें राष्ट्र हित को सदैव सर्वोपरि रखना चाहिए।
कश्मीरियों के मामले को उठाया
कांग्रेस पार्टी के संगठनात्मक कार्य हेतु 1963 की ‘कामराज योजना’ के अतर्गत मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने वाले वही पहले व्यक्ति थे। परन्तु कुछ महीनों के अन्दर उन्हें पंडित नेहरू की सहायता के लिए बिना विभाग के मंत्री के रूप में केन्द्रीय मंत्रिमंडल में पुनः शामिल कर लिया गया। इस भूमिका में उन्होंने “कश्मीरियों के मामले” को बड़ी कुशलतापूर्वक निपटाने और सौहार्दपूर्ण ढंग से मतभेदों को दूर करने में सहायता की।
शास्त्री जी केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो का गठन करने और देश के प्रशासन तथा सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उपायों की सिफारिश करने के लिए संथानम समिति की नियुक्ति करने में भी सहायक रहे।
2 जून 1964 को बने प्रधानमंत्री
पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद राष्ट्र को नेतृत्व प्रदान करने का भार शास्त्री जी के कंधों पर आ पड़ा। दिनांक 2 जून 1964 को उन्हें एकमत से कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया और 9 जून 1964 को भारत के प्रधान मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई।
प्रधान मंत्री के रूप में पदभार ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं पर अधिकाधिक स्पष्टता के साथ अपने विचार व्यक्त किये।
जय जवान-जय किसान का दिया नारा
वह देश में व्याप्त गरीबी और बेरोजगारी जैसी मूल समस्याओं के प्रति सदैव जागरूक रहते थे। वह सुरक्षा बलों को सुदृढ़ करने और खेत जोतने वाले किसान को सम्मानित करने पर समान रूप से बल देते थे। उनके लिए खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी कि मजबूत सुरक्षा व्यवस्था।
इसी कारण उन्होंने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया। उनका विश्वास था कि खेत जोतने वाला किसान भी हमारी सीमाओं की रक्षा करने वाले जवान की तरह ही सैनिक है।
भारत-पाक युद्ध
वर्ष 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान शास्त्री जी की भूमिका और ताशकंद घोषणा को आधुनिक भारतीय इतिहास में उल्लेखनीय घटना माना गया। यद्यपि इस युद्ध में भारत की विजय हुई तो भी शास्त्री जी दोनों देशों के बीच के विवादास्पद मुद्दों का शांतिपूर्वक समाधान चाहते थे।
उन्होंने महसूस किया कि यदि दोनों देशों को शांति के साथ अच्छे पड़ोसियों की तरह रहना है, विशेषकर जब उनकी प्राथमिकताएं युद्ध एवं विवाद होने की बजाय अपनी जनता को रोटी, कपड़ा और मकान उपलब्ध कराना हो तो विवादास्पद मुद्दों का शांतिपूर्ण समाधान अनिवार्य है।
18 महीने तक प्रधानमंत्री रहे
शास्त्री जी 18 महीने तक देश के प्रधान मंत्री रहे। वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता थे किन्तु उनकी नजर में प्रधान मंत्री ‘केवल समान लोगों में प्रथम, दल का कप्तान, नीतियों को लागू करने वाला तथा इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। उनकी अभिव्यक्ति की सरलता और उच्च पद पर रहते हुए उनके व्यवहार से उनकी आंतरिक दृढ़ता, असाधारण सूझबूझ और प्रकांड बुद्धिमत्ता का ही प्रदर्शन होता था।
उन्होंने अभूतपूर्व स्थिति पर सरलता और कुशलतापूर्वक नियंत्रण पाया और राष्ट्रीय गतिविधियों को अथक दृढ़ता व सुस्पष्ट दिशा देकर उन्हें इस प्रकार निपटाया कि समग्र राष्ट्र में उद्देश्य बोध की चेतना जाग गई। समस्याओं के प्रति अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण के चलते वह न केवल अपने देशवासियों को ही प्रिय थे अपितु उन्होंने अन्य देशों के लोगों का प्यार भी प्राप्त किया।
महात्मा गांधी के कट्टर अनुयायी
शास्त्री जी शांति तथा लोकतंत्र के सच्चे अग्रदूत थे। गांधीजी के कट्टर अनुयायी के रूप में उन्होंने अपनी जिंदगी को गांधीजी के जीवन दर्शन के अनुसार जिया। गांधीजी की तरह उन्होंने सत्य को अहिंसा से ऊंचा स्थान दिया।
वह शांति के अग्रदूत भी थे तथा भारत को विश्व में शांति का अग्रदूत बनाना चाहते थे। लेकिन वह अपने देश की संप्रभुता को दांव पर लगाकर शांति स्थापित करने को कतई तैयार नहीं थे तथा उनका सदैव यह मानना था कि हर कीमत पर देश के हितों की रक्षा करना हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है।
निष्काम कर्म में दृढ़ विश्वास रखने वाले शास्धी जी ने लोगों, विशेषत: ग्रामीण लोगों के उत्थान के लिए आजीवन अथक परिश्रम किया। वह ‘समन्वयवाद’ के दर्शन में भी दृढ़ विश्वास रखते थे। यह “वाद” जोवन एक प्रति एक दार्शनिक दृष्टि है जो प्रतिकृत विचार के बीच से होकर निकलने वाला मध्यम मार्ग है। विद्वान व्यक्ति के नाते शास्त्री जी को साहित्य में विशेष रुचि थी। उनका झुकाव उर्दू शायरी की तरफ भी था। मैडम क्यूरी की जीवनी से वह इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने कारावास के दौरान इसका हिन्दी अनुवाद कर दिया।
ताशकंद में संदेहास्पद निधन
11 जनवरी 1966 को भारत के इस महान सपूत का ताशकंद में निधन हो गया। अपने जीवन को शांति की वेदी पर अर्पित करने वाले इस महान नेता की दुःखद मृत्यु पर समूचे राष्ट्र-संसद, राज्य विधानमण्डलों, प्रेस, जीवन के हर क्षेत्र के नेताओं तथा विदेशों के गण्यमान्य व्यक्तियों ने शोक व्यक्त किया।
शास्त्री जी के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने कहा:
“लाल बहादुर शास्त्री जी के उदाहरण से इस देश में लोकतंत्र की ताकत का पता चलता है। एक साधारण परिवार में पैदा होने वाले तथा जन्म, प्रतिष्ठा अथवा धन के किसी लाभ के बिना वह देश के शासनाध्यक्ष पद पर आसीन हुए। ऐसा उनके चारित्रिक बल तथा जीवन के प्रति सत्यनिष्ठा के बल पर ही संभव हो पाया था। इन्हीं गुणों के कारण वह इस सर्वोच्च पद को सुशोभित कर पाये थे।”
इंदिरा गांधी ने दी श्रद्धांजलि
शास्त्री जी के निधन के पश्चात् प्रधान मंत्री का पदभार संभालने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा: “….वह अत्यधिक मृदु और शांत स्वभाव के थे लेकिन युद्ध के समय उन्होंने हमारा मनोबल ऊंचा बनाये रखा और राष्ट्र को अपना नेतृत्व प्रदान किया जिसने देश की एकता तथा ताकत में सहयोग दिया।”
राष्ट्र के प्रति उनके योगदान की सराहना करते हुए, तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष, सरदार हुकम सिंह ने कहा:
“लाल बहादुर शास्त्री जी ने यह सिद्ध कर दिया कि हम अपनी किसी कमजोरी के कारण नहीं, अपितु इसलिए शांति चाहते हैं क्योंकि हमारे विचार से शांति, देश तथा विश्व, दोनों के लिए अनिवार्य है।”
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कही बड़ी बात
शास्त्री जी के निधन के दुःखद समाचार से भावविह्वल होकर तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने टिप्पणी की कि “शास्त्री जी के बिना दुनिया छोटी हो गई है और उनके परिवार तथा भारत की जनता के साथ हमें सहानुभूति है”।
यूएन महासचिव ने दी श्रद्धांजलि
शास्त्री जी के आकस्मिक निधन पर अपनी गहन संवेदना व्यक्त करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव यू थान्ट ने कहा: “न केवल भारत, न केवल एशिया अपितु सम्पूर्ण विश्व शास्त्री जी के निधन पर शोकाकुल है… प्रधान मंत्री शास्त्री ने अपने महान देश की ऐसा नेतृत्व आर मार्गदर्शन प्रदान किया जिसके आधार पर भारत ने न केवल अपने सामाजिक और आर्थिक वातावरण को और अधिक उत्साह के साथ सुधारने का प्रयास किया, बल्कि उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर सम्पूर्ण मानव जाति के हित के लिए कार्य करने के अपने दृढ़ निश्चय को कार्यरूप दिया”। लाल बहादूर शास्त्री का जीवन भारत तथा विश्व को सदैव प्रेरणा प्रदान करता रहेगा।
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